शुद्धाद्वैत ब्रह्मवाद
श्री शुद्धाद्वैत ब्रह्मवाद निर्गुण पुष्टिभक्तिमार्ग का सूक्ष्म परिचय
भारतवर्ष की विख्यात वैष्णव सम्प्रदाय चतुष्टयी में श्रीवल्लभसम्प्रदाय चतुर्थ स्थान पर आता है। इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक एवं संस्थापक जगद्गुरु श्रीमद्धल्लभाचार्यचरण हुए। परन्तु वल्लभ सम्प्रदाय के उन्नयन, प्रचार-प्रसार में श्रीवल्लभाचार्यजी के द्वितीय कुमार श्रीविट्टलनाथजी श्रीगुसांईंजी का अभूतपूर्व योगदान है। दार्शनिक जगत् में श्रीवल्लभाचार्यचरण का मत ‘‘शुद्धाद्वैत ब्रह्मवाद“ के नाम से प्रसिद्ध है। इस सिद्धान्त में आचार्य शंकर के ‘‘अद्वैत विवर्तवाद“ सिद्धान्त से विलक्षण भिन्नता है। ‘‘केवलाद्वैत“ मत में जहां माया शबलित ब्रह्म को जगत् का कारण माना गया है एवं सम्पूर्ण जगत् को मिथ्या कहा गया है, वहीं शुद्धाद्वैत मत में माया सम्बन्धरहित नितान्त शुद्ध ब्रह्म को जगत् का कारण माना जाता है।
आचार्य शंकर अपने सिद्धान्त के अनुरूप अद्वैत ब्रह्म का प्रतिपादन करते हैं। परन्तु श्रीवल्लभाचार्यचरण भगवान् कृष्णद्वैपायनव्यास के मतानुसार ‘‘शुद्धाद्वैत साकार ब्रह्मवाद“ का प्रतिपादन करते हैं। ‘‘साकार ब्रह्मवादैकस्थापकः“
आज आदिकाल से हमारे शास्त्रों की, शास्त्रकारों की, आचार्य की, ऋषि मुनियों की, विद्वानोंकी यह सनातन परम्परा रही है कि कोई भी आस्तिक दर्शन वैदिक आधार के बिना स्थिर वा मान्य कदापि नहीं हुआ है, न है, न होगा। अतः उसी सनातन परम्परा का अभितः निर्वहन करते हुए जगद्गुरु श्रीमद््वल्लभाचार्यचरण ने सम्पूर्ण श्रौतवैय्यासिक ऐसे दिव्य औपनिशद् सिद्धान्तों की नींव पर ही अपने ‘‘शुद्धाद्वैत ब्रह्मवाद निर्गुण पुष्टिभक्तिमार्ग“ के सुदृढ़, भव्य, रमणीय एवं अलौकिक भवन का निर्माण किया है।
अर्थवाद सहित चारोवेद, सम्पूर्ण वेदार्थानुवादक श्रीमद्भगवद्गीता श्रीकृष्णवाक्य, व्याससूत्र-तत्वसूत्र, तद्, अविरूद्ध जैमिनी सूत्र एवं भक्तियोगज समाधिप्राप्त निगम कल्पतरू फलस्वरूप श्रीमद्भागवतमहापुराण, ये चारोप्रस्थान ब्रह्म निरूपण में प्रमाण हैं। इनसे विरुद्ध जो भी कुछ है, वह शुद्धाद्वैत ब्रह्मवाद में प्रमाण नहीं है। इसीलिये श्रीवल्लभाचार्यजी स्पष्ट आज्ञा करते हैं ‘‘शब्द एव प्रमाणम्“ ‘‘तत्राप्यलौकिकज्ञापकमेंव, तत् स्वतः सिद्धप्रमाणभावं प्रमाणम्“। प्रत्यक्षादि प्रमाणों में भ्रान्तत्व का भी दर्शन होने से उनका प्रामाण्य एकान्तिक नहीं हो सकता. अतः उन सबों को न कहकर केवल ‘‘शब्द प्रमाण“ को ही स्वीकार किया गया है एवं उसमें भी अलौकिक ज्ञापक शब्द का ही स्वीकार है अर्थात् ब्रह्म प्रतिपादन में उक्त प्रस्थान चतुष्टय प्रयुक्त शब्द ही प्रमाण है, अन्य आप्तवाक्यीभूत लौकिक शब्द भी नहीं।
अतः स्वतः सिद्ध प्रमाण रूप, भगवन्निष्वासात्मक, अलौकिक, सर्वाश्रयीभूत भगवान् वेद् (उभय काण्डात्मक), साक्षात् भगवद्वाक् श्रीमद्भगवद्गीता श्रीकृष्ण वाक्य, ज्ञानावतार श्रीकृष्ण द्वैपायनव्यास रचित व्याससूत्र (ब्रह्मसूत्र) एवं भगवद् भक्तियोगज समाधिदृश्ट साक्षाद्भगवत्स्वरूपात्मक श्रीमद्भागवत समाधिभाषाही, सर्वतंत्र स्वतन्त्र, कर्तुं अकर्तुं अन्यथा कर्तुं समर्थ, परात्पर सर्वकारणकारण, अप्राकृतनिखिलधर्मवान्, निर्गुण साकार, परब्रह्म पूर्णपुरुषोत्तम के निर्णय प्रतिपादन में समर्थ हो सकते हैं। इसीलिए श्रीवल्लभाचार्यचरण वेदों का प्राथम्य एवं अविकल प्रामाण्य स्वीकार करते हैं।
सर्वप्रथम किसी भी दर्शन पर विचार करने से पूर्व दर्शन शब्द की परिभाषा समझ लेना आवष्यक है ‘‘किन्नाम दर्शनमिति प्रश्ने तत्वज्ञानसाधनं शास्त्रम्, अपरोक्षज्ञानम् साक्षात्कारोवेति।“ तत्वज्ञान कराने में साधन रूप शास्त्र को दर्शन कहते हैं या अपरोक्ष ज्ञान को दर्शन कहते हैं या फिर चाक्षुश प्रत्यक्ष को दर्शन कहते हैं। हमारे विषयानुरूप दर्शन का अर्थ यहां पर स्पष्टतः तत्वज्ञान से वा अपरोक्ष ज्ञान से है। दर्शन भी दो प्रकार के होते हैं- प्रथम- आस्तिक दर्शन और द्वितीय- नास्तिक दर्शन।
आस्तिक दर्शन मुख्यतः षड्विध होते हैं।
ते च- ‘‘सांख्यपातंजलपूर्वमीमांसोत्तरमीमांसातर्कन्यायभेदेनेति“ (न्या0को0)
1. सांख्यदर्शनशास्त्र – श्रीकपिलमुनि प्रणीत।
2. पातंजलयोग दर्शनशास्त्र – श्रीमहर्षि पतंजलि प्रणीत।
3. पूर्वमीमांसा दर्शनशास्त्र – महर्षि जैमिनी प्रणीत।
4. उत्तरमीमांसा दर्शनशास्त्र – भगवान् श्रीकृष्ण-द्वैपायन वेदव्यास प्रणीत।
5. तर्कवैशेषिक दर्शनशास्त्र – श्रीकणादमुनि प्रणीत।
6. न्यायदर्शन शास्त्र – महर्षि गौतम प्रणीत।
इस प्रकार उपर्युक्त छः आस्तिक दर्शन हमारी सनातन परम्परा से हमको विरासत में प्राप्त हुए हैं। यहां पर हमारा विवक्षित विषय उत्तर मीमांसा दर्शन अर्थात् वेदान्त दर्शन के अन्तर्गत आता है ये वेदान्त दर्शन मुख्यतः पाँच प्रकार
‘‘केवलाद्वैत-विशिष्टाद्वैत-द्वैताद्वैत-शुद्धाद्वैत-भेदात्-पंचिविधाः।“
1. केवलाद्वैत वेदान्त दर्शन – श्रीसुरेश्वराचार्याभिमत भगवान् शंकरावतार आचार्य शंकर प्रणीत।
2. विशिष्टाद्वैत वेदान्त दर्शन – भगवान् शेषावतार श्रीरामानुजाचार्य प्रणीत।
3. द्वैत वेदान्त दर्शन – भगवान् वाय्वावतार श्रीमध्वाचार्य प्रणीत।
4. द्वैताद्वैत वेदान्त दर्शन – भगवान् हंसावतार श्रीनिम्बार्काचार्य प्रणीत।
5. शुद्धाद्वैत वेदान्त दर्शन – श्रीवेदव्यासमतानुववर्त्ति श्रीभगवन्मुखावतार श्रीमद्धल्लभाचार्य प्रणीत।
श्रीमद्धल्लभाचार्य प्रकटित शुद्धाद्वैत दर्शन के अनुसार ब्रह्म में शरीर शरीरि विभाग जीववत् नहीं माना गया है। किन्तु क्षराक्षरातीत, प्राकृतेतर सकल धर्मवान्, रसस्वरूप, मधुराधिपति, रासरसेष्वर, भगवान श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण अंग एवं लीला भी अंगी के समान ही मधुरिमा से विलसित है। अर्थात पूर्ण है।
केवलाद्वैत में जहां द्वैत को सर्वथा मायिक मानते हुए जगत् को मिथ्या माना गया है तथा जीव को ब्रह्म का प्रतिबिम्ब माना गया है, अर्थात् जीव ही ब्रह्म है। ‘‘ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या जीवोब्रह्मैवनापरः“ ऐसा स्पष्ट निर्देष है, वहीं शुद्धाद्वैत में ‘‘ब्रह्मसत्यं जगत्सत्यं अंशोजीवोहि नापरः“ ऐसा कहा गया है। अतः द्वैत मिथ्या नहीं है, अपितु भगवत्कृत परन्तु लीलार्थ गृहीत है। जगत्सत्य है और जीव को भगवद् अंश माना गया है। जैसा कि श्रुति स्मृति सूत्र भागवत में कहा गया है- ‘‘स एकाकी न रमते द्वितीयमैच्छत्“ ‘‘तदात्मानं स्वयमकुरुत“ ‘‘एकोऽहंबहुस्यां प्रजायेय“ ‘‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति यं प्रत्ययन्ति अभिसंविशन्ति“ ‘‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म“ ‘‘स ईक्षांचक्रे“ ‘‘जन्माद्यस्ययतः शास्त्रयोनित्वाद्“ ‘‘तत्तु समन्वयात्“ ‘‘अंशोनानाव्यपदेषात्“ ‘‘ममैवांषोजीवलोके“ ‘‘अहं सर्वस्यजगतः प्रभवः प्रलयस्तथा“ ‘‘अहं सर्वस्य प्रभवः मत्तः सर्वं प्रवर्तते“ ‘‘मयि सर्वमिदं प्र¨तं सूत्र्¨ मणिगणा इव“ ‘‘बीजं मां सर्व-भूतानां विद्धि पार्थ सनातनम्“ इत्यादि प्रमाणों से स्पष्ट है कि यह समग्र चराचर भगवान् ब्रह्म से ही उत्पन्न हुआ है और स्वयं ब्रह्म इसी चराचर में स्वेच्छा से रमण करता है। परन्तु अज्ञानी लोग उसे इस अलौकिक स्वरूप में देख नहीं सकते।
अतः बिना भगवत्कृपा के भगवद्स्वरूप लीला का ज्ञान नहीं होता। अतः पुष्टिमार्ग के सिद्धान्तों का ज्ञान भी भगवत्कृपा से ही सम्भव हो सकता है।