जगत्स्वरूप
शुद्धाद्वैत ब्रह्मवाद में जगत् को भी ब्रह्म का ही सदंश माना गया है। ‘‘प्रपंचो भगवत्कार्यः“ जो प्रपंच है, वह भी भगवत्कार्य है। जगत् और संसार दोनों भिन्न हैं।
ब्रह्मवाद में ब्रह्म ही ब्रह्म है। यहां तक कि जो माया है, वह भी भगवान् की ही परिचारिका भगवच्छक्ति है। जगत् की उत्पत्ति विनाश हम केवल अनुभव करते हैं, वह है नहीं। वस्तुतः वह उत्पत्ति नाश न होकर आविर्भाव-तिरोभाव है।
अर्थात् समग्र जगत् माया सम्बन्ध से रहित ब्रह्म ही है – ‘‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म“– ब्रह्म ही अपनी इच्छा से जगत्कार्य रूप में अविकृत परिणाम को प्राप्त होता है एवं पुनः अपनी ही इच्छा से इस सबको अपने में लय कर लेता है। यही आविर्भाव तिरोभाव है। कारण कि जो है उसका अभाव नहीं होता और जो नहीं है, उसका भाव नहीं होता।
आविर्भाव तिरोभाव भगवान् की दो शक्तियां हैं। जगत् पदार्थ असत्य नहीं है परन्तु भगवच्छक्ति माया दो प्रकार की होती है- व्यामोहिका एवं आच्छादिका। व्यामोहिका जीव का व्यामोहन करती है और आच्छादिका सद्धस्तु पदार्थ का आच्छादन करती है, अतः हमको सत् पदार्थ भी असत् मालूम होते हैं। शुद्धाद्वैत ब्रह्मवाद में विषय स्वयं भगवान् हैं और विषय ता मायाजन्य भ्रान्त ज्ञान है। विषय जन्य पदार्थ सत्य हैं और विषय ता जन्य भासित पदार्थ असत्य हैं अर्थात् जगत् सत्य है और संसार असत्य है।