ब्रह्मवाद में जीवस्वरूप

श्रीवल्लभाचार्य चरण आज्ञा करते हैं कि जीव है वह ब्रह्म का अंश है। ब्रह्म के साथ जीव का अंशाशी भाव सम्बन्ध है। यथाग्ने क्षुद्राविस्फुलिंगा व्युचरन्ति“ ‘‘अंशो नाना व्यपदेशात्“ ‘‘ममैवांषो जीवलोके जीवभूतः सनातनः“ ‘‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते“ और अंश होने से जीव अणु परिमाण है।

जीव भगवदंश एवं अणुपरिमाण ही है। भगवान् सर्वज्ञ हैं, जीव अल्पज्ञ है। परन्तु जब भगवान् निजानुग्रहपूर्वक इस तिरोहितानन्द जीव को आनन्द प्रदान करते हैं तब प्रज्वलित काष्ठवत् जीव भी अनलात्मा हो जाता है, ब्रह्मात्मक हो जाता है। परब्रह्म भगवान् तो सच्चिदानन्दस्वरूप हैं। उनके सदंश से जगत् की रचना है। चिदंश से चित् जीव की रचना है और जब इन दोनों अंशो में प्रभु कृपापूर्वक आनन्दांश का आविर्भाव करते हैं तो दोनों में ब्रह्मधर्मोका दर्शन होने लगता है। इस तरह जीव ब्रह्म का एक छोटा सा अंश है जैसे अग्नि में से चिनगारी निकलती है, वह अग्नि का अंश है स्वयं अखण्ड अग्नि नहीं है, परन्तु अग्नि स्वयं तो अखण्ड एवं पूर्ण ही रहती है। उसी तरह जीव ब्रह्म का अंश होते हुए भी ब्रह्म स्वयं तो अखण्ड एवं पूर्ण ही है। इस जीव के उत्पत्ति और नाश में ऐसी ही विलक्षणता है। जैसे चिनगारी निकलती है कुछ देर उसी रूप में रहती है, फिर पुनः अपने अंशी अग्नितत्व में लय को प्राप्त हो जाती है। परन्तु व्यवहार में हम यह कहते हैं कि चिनगारी बुझ गई। यहां पर ध्यान रहे कोई भी तत्व (एनर्जी) कभी नष्ट (वेस्ट) नहीं होती। केवल उसका अनुभव (दर्शन) आविर्भाव है और अननुभव (अदर्शन) तिरोभाव है। इसी प्रकार जीव भी ब्रह्म का एक अंश है, जो चिनगारी की तरह ब्रह्म से ही आविर्भूत होता है और पुनः अपने अंशी ब्रह्म में ही तिरोभूत (लय) हो जाता है। अब विचारिये कि इस वेदादि शास्त्रोक्त प्रक्रिया में कहां पर आरोपित तथा मायिक (मिथ्या) द्वैत आता है। आग से निकली हुई चिनगारी भी अग्नि ही है, यदि वस्त्र पर पड़ेगी तो जलायेगी, चाहे वह छोटी ही क्यों न हो , है तो अग्नि ही। इसी प्रकार सत् चित् भी ब्रह्म के कार्य एवं अंश हैं। अतः इस श्रोतप्रक्रिया के आधार पर ही भगवान् वल्लभाचार्य ने शुद्धाद्वैत ब्रह्मवाद निर्गुणपुष्टिभक्तिमार्ग का प्रतिपादन किया।