नैश्चिन्त्य एवं अभय
शुद्धाद्वैत के अनुसार परमात्मा परब्रह्म ही सर्व-समर्थ, कर्ता, भोक्ता होने से एवं जीव का असामर्थ्ययुक्त होने से स्वतः ही नैश्चिन्त्य प्राप्त हो जाता है। सेव्य, सेवक वा स्वामी सेवक भाव की स्वीकृति पुष्टि मार्ग में होने से सेवक का तो इतना ही कर्तव्य होता है कि जो भी प्रभु स्वामी आज्ञा करे उसका पूर्ण निश्ठा एवं लगन-पूर्वक पालन करना।
ब्रह्म के तीन स्वरूप है 1 आधिभौतिक = जगत
2 अध्यात्मिक = अक्षरब्रम्ह
3 आधिदैविक = परब्रह्म ;पूर्णपुरुषोत्तमद्ध
ब्रहम के 6 धर्म है – ऐश्वर्य, वीर्य, यश , श्री, ज्ञान एवं वैराग्य। इन छह धर्मो से जो युक्त होता है, वही भगवान है।
सर्वत्र भगवद्भाव होने पर भय का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। कोई वस्तु जब विपरीत स्वभाव की द्वितीय उपस्थित होती है तो भय होता है, परन्तु यहां पर तो सर्वत्र भगवत्कार्य, अंश वा स्वरूपात्मक होने से भय की सत्ता ही नहीं है।
शुद्धपुष्टि प्रपत्ति में कर्मज्ञान की अपेक्षा नहीं होती है। यहां तो भक्त की मानसिक दशा वह होती है जिसमें वह सर्वत्र भगवद्भावपूर्वक भगवान् को छोड़कर किसी भी अन्य को अपना आश्रय नहीं मानता। वह अनन्याश्रयी होता है।
शुद्धाद्वैतब्रह्मवादनिर्गुणपुष्टिभक्तिमार्ग का ध्येय, ज्ञेय, प्रेय, सेव्य, श्रेय जो कुछ भी कहें सब कुछ बस वही एकमात्र भगवान् पूर्णपुरुषोत्तम पर ब्रह्म सर्वाप्राकृतधर्मवान् विरुद्धधर्माश्रय, सर्वकारण कारण, कर्ताभोक्ता. सर्वसमर्थ नित्यशुद्ध शरणागतवत्सल, श्रीगोपीजनवल्लभ, रासरसेश्वर आनन्दकन्द सच्चिदानन्द स्वरूप, रसस्वरूप, साकार, यशोदोत्संगलालित भगवान श्रीकृष्ण ही है। ‘‘मम सर्व ही भगवानहं भगवतः पुनः“ बस यही सर्वोत्तम भाव पुष्टिभाव है।
जानीत परमं तत्वं यशोदोत्संगलालितम
तदन्यदिति ये प्राहुरासुरास्तानऽहो बुधाः।।