विरुद्धधर्माश्रयत्व
एक की अनेकता और अनेक की एकता, यद्वा परस्पर प्रतियोगि धर्मोकी एक कालावच्छेद से एकत्र स्थिति होना। एक ही वस्तु के दो विरुद्ध पहलू हैं। जिसे दार्शनिक भाषामें विरुद्धधर्माश्रयत्व या उभयधर्मत्व भी कहते हैं। दो विरोधी धर्मो की एक ही समय में एक ही स्थान पर एक ही साथ स्थिति होना ही विरुद्धधर्माश्रय है। शुद्धाद्वैत में ब्रहम को विरुद्धधर्माश्रयी कहा गया है। भगवान ब्रहम के बाल स्वरूप में विराट स्वरूप विद्यमान है और विराट स्वरूप में भी बालस्वरूप विद्यमान है।
शुद्धाद्वैत सिद्धान्त में ब्रह्म का स्वरूप अक्षरशः श्रुत्युक्त ही है। प्राकृत धर्मरहित, सकल अप्राकृतधर्मयुक्त, आनन्दमय, आनन्दस्वरूप, निर्दोष-पूर्णगुणविग्रह, आत्मतन्त्र, आनन्दमात्रकरपादमुखोदरादिवान्, व्यापक, सर्वविरुद्धधर्माश्रय, नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव, सर्वकर्ता भोक्ता, सर्वकारणकारण, सच्चिदानन्द स्वरूप, सर्वात्मा, परब्रह्मपूर्णपुरुषोत्तम, नित्यलीलायुत, यशोदोत्संगलालित श्रीगोपीजनवल्लभ नन्दनन्दन श्रीकृष्ण ऐसे ही हैं।