जगद्गुरू श्रीवल्लभाचार्यजी

जगद्गुरू श्रीवल्लभाचार्यजी

मूलपुरुष श्रीयज्ञनारायणजी से प्रारम्भ करके श्रीमहाप्रभुजी तक वंशावली –

नंदनंदन आनंदकन्द श्रीकृष्ण के जन्मस्थान ऐसे परम पवित्र भारत वर्ष के दक्षिण दिशा में आयी हुई कृष्णा नदी का दक्षिण भाग ‘‘तैलंग देश “ के नाम से जाना जाता है, दूसरा प्राचीन नाम ‘‘त्रिलिंग“ और ‘‘आन्ध्र“ देश है। इस देश का विस्तार श्री शैल से लेकर चौल राज्य के मध्य तक था। उसकी भाषा तैलंगी, आन्ध्र अथवा तेलगु कही जाती है। फिलहाल उड़ीसा के दक्षिण भाग से लेकर मद्रास और उसके आगे समुद्र तट का प्रदेश तैलंगन, तैलंग अथवा तिलंगाना नाम से जाना जाता है। उस तैलंग देश के आकबीडु जील्हे में व्योम स्थंभ नाम के पर्वत के पास कृष्णा नदी के दक्षिण भाग में कांकुंभकर नाम का एक बड़ा समृद्धिशाली और प्रसिद्ध नगर था वहाँ श्रौत स्मार्त कर्मानुष्ठानशील विद्वान् ब्राह्मण की एक जाति निवास करती थी। ये जाति परम संतोषी, यज्ञयागादि कर्मपरायण और सात्त्विक वृत्ति से निर्वाह करती थी। उस ब्राह्मण जाति में एक कुटुंब ‘‘वेल्नाट, वेल्लनाडु“ नाम की थी। विशाल कुटुंब, वैष्णव धर्म का अनुयायी, यजुर्वेदान्तान्तर्गत तैत्तिरीय शाखाध्यायी और आपसतम्ब त्रिप्रवरान्वित भारद्वाज गोत्री था। उनकी कुल देवी रेणुका और आराध्य देव परात्पर श्री कृष्ण हैं।

 

यज्ञनारायण भट्ट – उस पवित्र कुटुम्ब में, विष्णु स्वामी मतानुयायी और मुकुन्द प्रभु की सेवा करने वाले श्रीगोविंदाचार्यजी के अनुगृहीत आचार्य श्री वल्लभ भट्टजी के वंश में, मानो महर्षि वेद व्यासजी की दूसरी मूर्ति और वेद के अवतार रूप ऐसे दीक्षित ‘‘श्रीयज्ञनारायण भट्ट“ हुए। उनका जन्म अनुमानतः वि.सं. 1400 माना जाता है। यह श्रीयज्ञनारायण भट्टजी जिनके कुल में पूर्णपुरुषोत्तम के प्रादुर्भाव निमित्त रूप शत सोमयज्ञ के प्रथमकर्ता होकर वो मूल पुरुष प्रसिद्ध हुए। (यदुनाथ वल्लभदिग्विजय आदि ग्रंथों के आधार से श्रीगोविंदाचार्यजी विष्णुस्वामी की आचार्य परम्परा में आते हैं)।

उपनयन संस्कार के अनंतर ब्रह्मचर्य अवस्था में गुरुकुल में रहकर वेद वेदान्त आदि अनेक शास्त्रों का अध्ययन कर उन्होंने विद्धता प्राप्त की। तत्पश्चात देवपुर में रहने वाले आत्रेयगोत्री ‘‘सुधर्मा“ नाम के सजातीय विद्वान ब्राह्मण की नर्मदा नाम की कन्या से विवाह हुआ। एक समय द्रविड़ देशीय ‘‘विष्णु मुनि नाम के विरक्त महात्मा अतिथि रूप पधारे, भट्टजी ने उनका यथायोग्य सन्मान किया और विरक्त दशा संबंधी परिचय पूछा, तब उन्होंने कहा कि ‘‘भक्ति मीमांसा“ ग्रंथ के विचार से मुझमें वैराग्य उत्पन्न हुआ। उसी दिन से मैं भगवान् की भक्ति में प्रवृत्त हुआ। उस ग्रंथ की मैंने ‘‘भक्त्युल्लासिनी“ नाम की व्याख्या की है। उन्होंने यज्ञनारायण भट्टजी के भक्ति धर्म की प्राप्ति के अर्थ की हुई प्रार्थना स्वीकार कर प्रसन्नता से उन्होंने विष्णुस्वामी बिल्वमंगल आदि सम्प्रदाय से प्राप्त गोपाल मंत्र का उपदेश दिया (दीक्षा दिया)।

उपदेशानन्तर भट्टजी श्रौतस्मार्त धर्मों के साथ-साथ प्रेम सहित निजकुल दैवत श्री गोविन्दाचार्य जी के सेव्य और उनके द्वारा स्वपिता को प्राप्त श्री मुकुंदरायजी की परिचर्या करने लगे- वह प्रति वर्ष सोमयाग प्रार्थना के प्रकृतियाग करते थे । (अग्निहोत्र, दर्शपूर्णमास, पशु चातुर्मास्य और सोम ये 5 प्रकृतियाग कहे जाते हैं )। एक समय सोमयज्ञ में आहुति देते समय अग्निमंडल में अति श्रद्धा से भगवान वासुदेव का ध्यान कर रहे थे, उस समय उन्होंने उस अग्निमंडल में रमणीय मुद्रा में विराजमान पीताम्बरधर, कमलनयन विप्रवेश से प्रकट होते भगवान को देखा। जब भगवान ने श्रीहस्त से उन्हें खड़ा किया तब वहां अनेक विध दीनता सह वह स्तुति करने लगे। पश्चात भट्टजी के मानसिक उपचारों को ग्रहण करते हुए प्रभु ने उन्हें वरदान मांगने के लिए प्रेरित किया। जब दर्शन से कृतार्थ होकर भट्टजी ने कुछ भी नहीं मांगा तब श्रीयज्ञनारायण प्रभु सौ (100) सोमयज्ञ पूर्ण होंगे तब आपके वंश में मैं स्वयं सद्धर्म की रक्षार्थ पुत्र रूप से अवतार ग्रहण करूंगा (प्रगट होऊंगा)। ऐसी आज्ञा करके सबके देखते-देखते उसी अग्निमंडल में तिरोहित हो गये। तब उसी यज्ञ में से उन्हें एक स्वरूप प्राप्त हुआ। (वही स्वरूप इस समय कामवन में विराजमान सप्तगृह श्रीमदनमोहनजी हैं)। कहते हैं एक समय भट्टजी के वेदावतार में संशय होने से कितनेक मायावादीयो ने हँसकर उनसे कहा कि आप इस भैंस को वेद पढ़ाओ । तब उन्होंने इस भैंस की तरफ देखकर कहा कि ‘भो ! लुलाय! वेदानुच्चारय“ इतना सुनकर वह वेद पाठ करने लगी। ऐसे अनेक चमत्कार उन्होंने दक्षिण में दिखाये। भट्टजी ने अपने जीवनकाल में 32 सोमयज्ञ कर प्रभु को प्रसन्न किया।

गंगाधर भट्ट – इसी यज्ञनारायण भट्टजी को अनेक सद्गुण सम्पन्न गंगाधर नाम का विश्रुत पुत्र हुआ। उन्होंने ब्रह्मचर्यावस्था में गंगाधर सोमयाजी पिता के सामने ही वेदादि अनेक शास्त्रों के अध्ययन से योग्य अवस्था होते समय तक सारी विद्धता प्राप्त करके अनेक धुरंधर विद्वानों द्वारा ‘सर्वतंत्र स्वतंत्र और ‘वेदांतज्ञ’ की उपाधियाँ प्राप्त की। उनका विवाह अग्निगोत्री ‘‘त्रिरुम्मल’’ उपनाम ‘‘त्रिमल्लम“ दीक्षित की ‘कांची’ नामक कन्या के साथ हुआ। उन्होंने ‘‘मीमांसा रहस्य“ आदि अनेक ग्रंथों का निर्माण किया- सहधर्मिणी के साथ यज्ञ और भक्ति से भगवान को प्रसन्न किया। भट्टजी ने सर्व शास्त्रों के अध्ययन द्वारा अनेक उत्तमोत्तम सर्वशास्त्र विशारद विद्वान शिष्यों को तैयार करने से उनकी कीर्ति चारों तरफ फैली। पिता के समान उन्होंने भी 28 सोमयज्ञ किये। इसलिए वे सोमयाजी कहलाये।

तीर्थयात्रा शास्त्रचर्चा अनेक यागादि का अनुष्ठान यही उनका मुख्य कर्तव्य था। कहते हैं कि एक समय अवभृथ स्नान करते समय सभी लोगों ने (वहाँ विद्यमान) भट्टजी के केश में से (बालों में से) जलधारा निकलते हुए देखा। तब से लोग उन्हें शिवजी का अवतार मानने लगे। तीनों आश्रमों का यथावत पालन कर अंत में वो ब्रह्मर्षि रूप से प्रख्यात हुए।

गणपति भट्ट – गंगाधर भट्टजी को एक गणपति नाम के पुत्र हुए। उन्होंने भी पिता से उपनीत होकर वेदादि का गम्भीर ज्ञान प्राप्त किया। कर्मकांड में उत्तम दक्षता प्राप्त करके युवावस्था में उन्होंने स्वग्राम निवासी वशिष्ठ गोत्रीपंडित केशव भट्ट की ‘अंबिका’ नाम की कन्या से विवाह कर गृहस्थ धर्म को स्वीकार किया। पश्चात यथासमय 30 सोमयज्ञ उपरान्त सशिष्योंके साथ दक्षिण देश में भ्रमण कर उन्होंने प्रत्येक स्थान के शाक्त और तांत्रिक विद्वानों से शास्त्रार्थ द्वारा पूर्ण ख्याति (प्रसिद्धि) प्राप्त की। भट्टजी ने ‘सर्वतंत्र निगृहे’ नाम का एक निबंध भी लिखा है। ऐसा प्रसिद्ध है कि काशी की विद्धद सभा में (विद्धत्सभा में) भट्टजी ने जब गणपति रूप से दर्शन दिये तब से सब सभाओं में प्रथम उनका पूजन होता था। गणपति भट्टजी को एक ‘वल्लभ’ नाम का पुत्र हुआ। लोक में वे ‘बालभट्ट’ नाम से भी प्रसिद्ध थे (जाने जाते थे)। उन्होंने यज्ञोपवीतानन्तर शास्त्रीय अध्ययन द्वारा उत्तम प्रकार से विद्धता प्राप्त की। चारों वेद और 6 शास्त्रों पर व्याख्याएं की। इसलिए वे ‘दशग्रन्थी’ नाम से बाद में प्रसिद्ध हुए। एक समय वल्लभ भट्ट धर्मपुरीस्थ मुद्गल गोत्री श्रौतस्मार्त कर्मकर्ता `ऋग्वेदी ‘‘काशीनाथ शर्मा“ के वाजपेय यज्ञ में गये। वहाँ उन्होंने प्रायश्चित्त के शास्त्रार्थ निर्णय से सबको संतुष्ट किया। तब उनकी विद्धता से प्रभावित होकर काशीनाथजी ने (अपनी) उनकी कन्या ‘‘पूर्णा“ के साथ उस समय विवाह किया। यद्यपि वे ‘कुंभी धान्य’ (एक कोठी भर धान्य जिनके पास रहता है ऐसे कम अनाज वाले) व्यक्ति थे फिर भी दर्शपूर्ण मासादि, भगवद् भजन द्वारा ज्यादा धान्य संपादन कर अपनी उत्तरावस्था में उन्होंने 5 सोमयज्ञ से श्री यज्ञनारायण प्रभु को प्रसन्न किया। उनका लिखा हुआ ‘भक्तिदीप’ नाम का ग्रन्थ प्रसिद्ध है। अंत में उन्होंने जनार्दन क्षेत्र में जाकर संन्यास ग्रहण कर भगवद्लोक को प्राप्त हुए। भट्टजी सूर्य के अवतार माने जाते थे।। उनके कारणरूप कहा जाता है कि एक समय उन्होंने यज्ञ करते-करते सायंकाल समय प्रहर दिन चढ़े हुए सूर्य के समान लोगों को दर्शन दिये थे। वल्लभ भट्टजी को 2 पुत्र हुए। एक लक्ष्मण भट्टजी और दूसरे जनार्दन भट्टजी।

लक्ष्मण भट्टजी:- लक्ष्मण भट्टजी का जन्म अनुमानतः वि.सं. 1500 माना जाता है। भट्टजी ने ‘‘विष्णुचित् दीक्षित“ से यज्ञोपवीत ग्रहण किया। फिर ब्रह्मचर्य के नियम धारण करके उन्होंने स्वल्प (अल्प) समय में ही सांग सरहस्थ और पदक्रम जटा-धन सहित वेद और वेदांतो का अध्ययन किया। तदनन्तर वे गुरु की आज्ञा से घर आये फिर विद्धत्सभाओ में अपनी विद्या का प्रकाश करने लगे। उनके सद्दगुणों से प्रभावित होकर विद्यानगर के राजपुरोहित काश्यपगोत्री ‘सुशर्माजी’ ने अपनी कन्या यल्लमागारू और इल्लमागारू के साथ उनका विवाह कराया।

एक समय प्रतिपक्षी राजा ने काकुम्भर नगरी को लूटा। तब से भट्टजी अपने निकटवर्ती ‘कांकर वाड’ जो अग्रहार के रूप में था, वहां निवास करने लगे। यहाँ उन्होंने 5 सोमयज्ञ और अनेक यज्ञ यागादि किये। जब उन्हें यल्लमागारू जी से ‘‘रामकृष्ण, सुभद्रा और सरस्वती“ ये 3 संतति प्राप्त हुईं तब वो विचार करने लगे अब तो 100 सोमयज्ञ की पूर्ति तो हो चुकी है और प्रभु प्रादुर्भाव का समय होते हुए भी अभी तक भगवद् अवतार हुआ नहीं। यही मेंरे दुर्भाग्य का कारण है। जो हमारे पूर्वजों का साधित अर्थ यदि मुझे सिद्ध नहीं हुआ है तो मेंरा जन्म निरर्थक है। इस प्रकार अत्यन्त (खिन्न) दुखी होकर अपनी प्रिय पत्नी इल्लमागारू जी को छोड़कर तीर्थयात्रा के निमित्त बताकर पिता से आज्ञा लेकर वे जनार्दन क्षेत्र में गये। वहाँ उन्होंने विष्णु स्वामी सम्प्रदाय के विद्वान त्रिदंडी और सर्वज्ञ ऐसे प्रेमांकर मुनि से गोपाल मंत्र की दीक्षा ली और वे पुरूश्चरण तथा सम्प्रदाय के ग्रंथों का अध्ययन कर वहाँ रहने लगे। थोड़े समय बाद उनके पिता वल्लभभट्टजी सपरिवार अपनी पुत्रवधू इल्लमागारू जी और लक्ष्मण भट्टजी की सास को साथ लेकर अपने पुत्र को खोजने के लिए जनार्दन क्षेत्र में आये। यहाँ पर उक्त ‘प्रेमाकर’ महात्मा को अत्यन्त प्रसिद्ध जानकर उनके दर्शनार्थ लक्ष्मण भट्टजी की स्त्री अपनी माता के साथ वहाँ गयी। उन्होंने मुनि को प्रणाम किया। तब मुनि ने प्रसन्न होकर इल्लमागारू जी को ‘पुत्रवती हो ’ और उनकी माता को सुखी रहो , ऐसा आशीर्वाद दिया। पश्चात मुनि ने प्रार्थना सुनकर प्रभु के ध्यान द्वारा भविष्य जानकर लक्ष्मण भट्ट को घर जाने को कहा और आशीष दिया कि आपका भगवद् प्राकट्य का मनोरथ शीघ्र सफल होगा। गुरु की इस आज्ञा को सहर्ष स्वीकार कर लक्ष्मण भट्टजी पिता की वहाँ रहने की इच्छा जानकर, कुटुम्ब सहित अपने घर गये। फिर कुछ समयान्तर ‘कौडिन्य गोत्री शंकर दीक्षित जी से मिले। त्रिस्थले (‘प्रयाग-काशी-गया’) यात्रा का उनका विचार जानकर उन्होंने भी उस यात्रा में आने को कहा। फिर भट्टजी ने 12 वर्ष की यात्रा के निर्णय के साथ सारी तैयारी कर यल्लमाजी, रामकृष्ण, सुभद्रा और सरस्वती आदि सबको अपने भाई जनार्दन जी के पास रखा और अग्नि को गाडे में पधराकर अनेक यात्री और पत्नी इल्लमागारू के साथ घर से प्रस्थान किया। उस साल मकर संक्रान्ति का विशेष पर्व होने के कारण भट्टजी के साथ ज्ञाति के अन्य समुदाय भी यात्रा के लिए निकले। वहाँ से भट्टजी ने ‘भ्रंग-सार्थक’ में मुकाम कर एक वेद का पारायण किया। उस समय रात्रि स्वप्न में भगवान श्रीकृष्ण ने प्रकट होकर उनको आज्ञा दी कि अब मैं आपके यहाँ पुत्र रूप में प्रकट होऊंगा और उस पुत्र को ये प्रसादी तांबुल जन्मघूंटी में पिलाकर माला पहनाकर उस बालक को ये मेंरा दिया अलौकिक उपरणा ओढ़ा दीजिये। जब भगवान श्रीकृष्ण स्वप्न में अंतर्ध्यान हुए तब भट्टजी की नींद खुली और उस समय उन्हें वहीं तीन वस्तु के प्रत्यक्ष दर्शन हुए। फिर उन्होंने इस बात को अपनी स्त्री से कही- 3 चीजों की रक्षा करने की आज्ञा दी। फिर ये दंपत्ति प्रभु प्राकट्य की प्रतीक्षा करने लगे। इस बड़े समुदाय सहित सं0 1533 के मार्गशीर्ष वदी 30 के दिन भट्टजी धर्मपुरी से प्रयाग आ पहुँचे। वहाँ विधिपूर्वक स्नान, मुण्डन और उपवास आदि करने के बाद चम्पारण के राजा के अमात्य सेठ कृष्णदास चोपड़ा क्षत्रिय के साथ उनका समागम हुआ। भट्टजी का पवित्र आचरण देख उन्होंने श्रद्धापूर्वक अपने यहाँ पुत्र होने की उनसे प्रार्थना की। तब उन्होंने इष्टदेव की आराधना द्वारा सेठ जी को वरदान देकर वहाँ से विदा किया। अनंतर श्री लक्ष्मण भट्टजी समूह सहित काशी में आकर हनुमान घाट के ऊपर रहने वाले अपने सजातियों के घर में रुके। वहाँ रहकर उन्होंने मणिकर्णिका स्नान और विशेश्वर, बिन्दुमाधव आदि का दर्शन कर काशी यात्रा समाप्त की। वहाँ कितनेक दिन रहकर फिर वे साथ आये हुए सजातीय वैदिक ब्राह्मण के साथ सं0 1534 की महा वदी 6 के दिन काशी से निकल कर आसपास के तीर्थ क्षेत्र की यात्रा कर फाल्गुन सुदी 15 के दिन गया क्षेत्र आये। वहाँ से श्राद्ध पिंडादि कृत्य करके चैत्र सुदी 2 के दिन गया से प्रस्थान कर चैत्र सुदी 9 के दिन पुनः काशी आये।

पश्चात रामनवमी के जागरण दरम्यान वे फिर विचारों में तल्लीन हो गये थे कि 100 सोमयज्ञ तो हो चुके फिर भी अभी तक भगवदआज्ञा फलित नहीं हुई। उसी विचारों में प्रातःकाल दशनामी संन्यासियों को लूटने आने वाले म्लेच्छो के उपद्रव के समाचार मिले – उनसे भयभीत होकर उन्होंने पुनः अपने देश की तरफ प्रस्थान किया। रास्ते में अपने 12 साल तक के तीर्थ संकल्प की अपूर्ति के विचारों से दुखी होकर अनेक विपत्तियों को, दुखों को सहन करते सजातीय समुदाय सहित वे थोड़े दिनों में चैत्र वदी 11 की सायंकाल (शाम को) के समय चतुर्भद्रपुर क्षेत्र के चंपारण्य के सघन वन में आ पहुँचे। यहाँ पर श्रम और अंधकार से भयभीत ऐसे इल्लमागारू जी के पेट में पीड़ा प्रसव समय की होने लगी। इसलिए उन्होंने भट्टजी से थोड़ी दूर जाकर महानदी के तट पर आये हुए एक शमी के वृक्ष के नीचे आकर बैठ गयीं। वहाँ उन्हें आठवें मास में गर्भ का प्रसव हुआ। अंधकार में उस गर्भ को मृतक समझ कर अपनी आधी साड़ी में लपेट कर वहाँ गिरे हुए वृक्षों के पत्तों से ढंक कर उसी वृक्ष के कोटर में गर्भ को रख श्री इल्लमागारूजी वापस जहाँ भट्टजी थे उनके साथ आयी। उस रात्रि भट्टजी ने श्रेष्ठी के चौडानगर में मुकाम किया। वहाँ स्वप्न में श्री प्रभु ने भट्टजी को अपने प्रकट होने का ज्ञान कराया। फिर सुबह कृष्णदास श्रेष्ठी के पास आये हुए पत्र से ज्ञात हुआ कि दण्डियों और राजपुरुषों ने म्लेच्छो को वहाँ से निकाल दिया और काशी में सर्वत्र शान्ति हो गयी है। इससे साथ में आये अनेक लोग अपने देश और काशी स्थान पर जल्दी वापस आना चाहते थे। वो भट्टजी की वहाँ थोड़े समय रहने की इच्छा जानकर उनकी आज्ञा लेकर अपने स्वस्थल पर आने के लिए वहाँ से प्रस्थान (प्रयाण) किया। (कांकरोली का इतिहास द्वि0प्र0प्रा016 की फुटनोट)

अनन्तर भट्टजी स्त्री सहित शेष सजातीय वर्ग को लेकर गर्भ के अन्वेषणार्थ चम्पारण्य में आये। रास्ते में इल्लमागारू जी ने जो स्थान निर्देश किया था, वहाँ मनुष्यों को खड़ा कर भट्टजी पत्नी के साथ जहाँ गर्भ रखा था, उस वृक्ष को खोजने गये। वहाँ उन्होंने चालीस हाथ के अग्निमंडल के मध्य में एक अप्राकृत तेजस्वी अंगुष्ठ चूसते बालक को खेलते देखा। उस समय अपने स्तनों में से दूध स्रावित होता देख माता इल्लमागारू जी ने भट्टजी से कहा, ये मेंरा पुत्र है। तब भट्टजी ने निःस्पृह भाव से कहा, यदि यह आपका ही पुत्र है तो अग्नि आपको मार्ग (जगह) देगी। अपने स्वामी की आज्ञा शिरोधार्य कर जब माता अत्यन्त हर्ष और वेग पूर्वक दौड़ी अपने पुत्र को लेने के लिए तो तुरन्त अग्नि ने उन्हें मार्ग दिया। तब माता ने अपने पुत्र को गोद में ले लिया और भट्टजी को दिया। इस अलौकिक बालक को देखकर भट्टजी की त्रिविध चिंताएं सहज में निवृत्त हो गयीं और वे परम प्रसन्न हुए। यही अप्राकृत बालक और हरिवदनानल विश्वमान्य वैश्वानर जगदगुरू श्रीवल्लभाचार्यजी पूर्व में बताये हुए त्रिकालज्ञ प्रेमाकर स्वामी जो जनार्दन क्षेत्र में रहते थे और लक्ष्मण भट्टजी के गुरु थे, वे चम्पारण्य में भगवद् प्राकट्य होगा, ये जानकर एक साल (एक वर्ष) से वहाँ पर्णकुटी बनाकर अपने प्रसिद्धि के भय से गुप्त रूप से अनेक शिष्यों के साथ रहते थे। यहां उन्होंने अपना नाम ‘श्रीपात’ रखा था।

इसी तरह इस समय चम्पारण्य के सघन वन में एक अद्वितीय और अपूर्व आनन्द मूर्तिमंत रूप सबको बालक के दर्शन हुए। वहाँ भट्टजी ने उस बालक को प्रभुदत्त ‘तांबूल’ जन्मघूंटी में पिलाकर प्रसादी माला पहनाकर और उपरणा सबके सामने ओढ़ाया।

इस बालक का अलौकिक प्रागट्य सं0 1535 शाके 1400, चैत्र वदी 11 को गुरुवार के दिन घनिष्ठा नक्षत्र, शुभयोग बवकरण एवं रात्रि की गत घड़ी 6.44 पल वृश्चिक लग्न में हुआ था।

उस समय की जन्मकुण्डली

यह बालक श्यामवर्ण और अत्यन्त मनोहर था। उसका ललाट अत्यन्त विशाल और तेजस्वी था।

(1) बिल्वमंगल 3 प्रसिद्ध है। 1) काशी निवासी, 2) द्रविड़ देशीय, 3) उत्कल देशीय। उत्कल देशीय बिल्वमंगल अष्टोत्तर श्लोक संख्यात्मक स्तोत्र के कर्ता हैं। द्रविड़ देशीय विष्णुस्वामी सम्प्रदाय के आचार्य हैं और काशी निवासी – चिंतामणि वाले। (प्रदीप प्र.3)

(2) यदुनाथ वल्लभ दिग्विजय में त्रिरूम्मल को वत्सगोत्री लिखा है। परन्तु उनके वंशज जो बीकानेर में विद्यमान हैं, उनके द्वारा उनका अत्रिगोत्री होना सिद्ध हुआ है।

(3) रायपुर जिले के रतनपुर के हैहय् – वंषीय राजाओं के राज्य का एक भाग था। रतनपुर के राजाओं ने 36 किलों गढ़ पर राज्य किया था इसलिए उनका देश छत्तीसगढ़ नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस वंश के 20 वे राजा सूरदेव के समय (संवत् 800) में छत्तीसगढ़ के 2 भाग हुए। छोटे भाई ब्रह्मदेव रायपुर को राजधानी बनाकर दक्षिणी भाग में राज्य करने लगे। उसके 9 पीढ़ी बाद रायपुर के राजवंश में कोई न रहने से सं0 1417 में रतनपुर के राजा जगन्नाथ सिंह देव के पुत्ररायपुर के राजा हुए। 1537 के समय राजा भुवनेष्वर सिंह ने रायपुर को किला बनाया। भुवनेष्वर राजा के समय में लक्ष्मण भट्टजी चम्पारण्य में आये थे और वे राजा के मुख्य आमात्य कृष्णदास चोपड़ा क्षत्रिय के घर में रुके थे।

 

पुष्टि सम्प्रदाय, वल्लभ सम्प्रदाय –

मुख्य वैष्णव सम्प्रदाय चार हैं – 1) रामानुज सम्प्रदाय, 2) माध्व सम्प्रदाय, 3) निम्बार्क सम्प्रदाय, 4) वल्लभ सम्प्रदाय (पुष्टि सम्प्रदाय)

पुष्टि सम्प्रदाय के प्रवर्तक ‘‘जगदगुरू श्रीमद् वल्लभाचार्यचरण महाप्रभु“ श्री वल्लभाचार्यजी का प्राकट्य मध्य प्रदेश के रायपुर जिले में स्थित ‘‘चम्पारण्य“ नामक स्थान पर हुआ। जहाँ पर वर्तमान में श्रीमहाप्रभुजी की बैठक भी स्थित है। आपका प्राकट्य वैशाख मास की कृष्णा -11 (गुर्जर गणनानुसार चै.कृ.11) रविवार, वि.सं. 1535 (ई.सन् 1478) को हुआ। श्रीमहाप्रभुजी का प्राकट्य गर्भ के सातवें मास में हुआ था। जिस दिन श्रीमहाप्रभुजी का प्राकट्य हुआ उसके समकालीन व्रज में श्री गोवर्धननाथजी के मुखारविन्द का प्राकट्य हुआ। ये महत्त्वपूर्ण घटना हुई।

श्री वल्लभाचार्यजी के माताजी का नाम इल्लम्मागारू जी एवं पिताजी का नाम श्री लक्ष्मण भट्टजी था। आपके माता-पिता आन्ध्र प्रदेश में कांकरवाड़ गांव के निवासी थे। यह आपका पैतृक स्थान है। आपकी माता विद्यानगर की थीं। श्रीमहाप्रभुजी के पूर्वज – चौदहवीं शताब्दी में कृष्णा नदी के तट पर गांव में श्री यज्ञनारायण भट्ट नामक विद्वान हुए। वे प्रायः यज्ञ किया करते थे। एक दिन जब वह यज्ञ कर रहे थे तो विष्णु मुनि उनके पास पधारे और उन्होंने प्रसन्न होकर मनोरथ पूर्ण करने वाला ‘‘गोपाल मंत्र“ उन्हें दिया।

श्रीमहाप्रभुजी का प्राकट्य 100 सोमयज्ञ के पूर्ण होने के फल के रूप में हुआ था। श्रीयज्ञनारायणजी को भगवान विष्णु ने स्वयं आज्ञा दी थी कि जब तुम्हारे कुल में 100 सोमयज्ञ पूर्ण होंगे तब मैं स्वयं अवतार ग्रहण करूंगा।

श्री वल्लभाचार्यजी के पूर्वजों ने 100 सोमयज्ञ किये थे जिसका विवरण निम्नलिखित है –

(1) श्री यज्ञनारायण दीक्षित (मूल पुरुष)     – 32 सोमयज्ञ

(2) श्री गंगाधरजी दीक्षित                 – 28 सोमयज्ञ

(3) श्री गणपतिजी दीक्षित                – 30 सोमयज्ञ

(4) श्री वल्लभजी दीक्षित                 – 05 सोमयज्ञ

(5) श्री लक्ष्मण भट्ट दीक्षित               – 05 सोमयज्ञ

100 सोमयज्ञ

इस प्रकार शत सोमयज्ञ समाप्ति के फलस्वरूप श्रीवल्लभाचार्यचरण का प्राकट्य हुआ। श्री वल्लभाचार्यजी के भूतल पर प्रकट होने के मुख्य कारण 1) दैवी जीवों का उद्धार करना और 2) श्रीमद्भागवत महापुराण के गूढ़ आशय को प्रकट करना। ‘‘दैवोद्धार प्रयत्नात्मा“ ‘‘श्री भागवत गूढ़ार्थ प्रकाशन परायण।“

श्री वल्लभ में बाल्यकाल से विशेष बात यह थी कि ये सदैव घुटनों के बल चलकर श्रीभागवत की और ही जाया करते थे। कहते हैं कि सेठ कृष्णदास ने आपश्री के पिता को ‘सुलक्षणी’ नामक ‘गौ’ प्रदान की थी। एक बार अचानक वह अस्वस्थ होकर चल बसी। सम्पूर्ण परिवार ‘गौ’ की मृत्यु से व्यथित था। तत्काल बालक श्रीवल्लभ आये और गौशाला में मृत अवस्था में पड़ी गौ पर अपना सुकोमल श्रीहस्त फेरा तब गौ जीवित हो गयी। यह बाल्यकाल में चमत्कार दिखाया था।

श्रीमहाप्रभुजी के पूर्वजों का मूल निवास स्थान दक्षिण में कृष्णा नदी के तटवर्ती ‘‘कांकरवाड़’ कांकुभर नामक गांव जो वेल्लनाट भी कहलाता है। यह स्थान आन्ध्र प्रदेश में व्योम स्थल श्रीशैल नामक पर्वत के पास कृष्णा नदी के दक्षिण में स्थित है। श्रीमहाप्रभुजी का गोत्र- भारद्वाज, वेद- कृष्ण यजुर्वेद, शाखा-तैत्तिरीय, प्रवर-आंगीरस बार्हस्पत्य त्रृप्रवर एवं कुलदेवी रेणुका हैं। (वर्तमान में रेणुका देवी का मन्दिर गुरूधाम चौराहा, काशी में स्थित है) श्रीमहाप्रभुजी के परिवार में दो बहनें एवं दो भाई थे। बड़े भाई रामकृष्ण भट्ट (केशवपुरी) और छोटे रामचन्द्र भट्ट तथा सरस्वती और सुभद्रा बहनें थी। कुछ इतिहासज्ञ श्री विश्वनाथ भट्ट को तीसरे भाई के रूप में मानते थे। श्रीमहाप्रभुजी का प्रसिद्ध नाम – श्री वल्लभ है, दैवनाम-श्रीकृष्ण प्रसाद प्रभुदत्त है, मास नाम- जनार्दन है और नक्षत्र नाम – श्राविष्ठ है। श्रीमहाप्रभुजी का अक्षरारम्भ 4 वर्ष की अवस्था में हुआ। श्रीमहाप्रभुजी का चौल संस्कार वि0सं0 1537 चै.शु. 9 को काशी में हुआ। आपश्री के यज्ञोपवीत संस्कार के संवत् एवं मिति के विषय में कुछ मत मतान्तर प्राप्त होते हैं। तदनुसार –

वि.सं. – 1540 मि. चैत्र कृष्णा 9

वि.सं. – 1542 मि. वैशाख कृष्णा 9

वि.सं. – 1543 मि. चैत्र शुक्ला 9

आपश्री का वेदाध्ययन आषाढ़ शुक्ला-2, पुज्य नक्षत्र, गुरूवार को आठ वर्ष की वय में प्रारम्भ हुआ। आपश्री ने 11 वर्ष की अवस्था में समस्त वेदादि शास्त्रों का अध्ययन कर लिया। वि.सं. 1545 में आपका अध्ययन समाप्त हो गया। आपश्री के विद्या गुरुओं में श्री लक्ष्मण भट्टजी व माधवेन्द्र पुरी जी के अतिरिक्त सर्वश्री विष्णु चित्त, श्री तिरुमल और श्री गुरु नारायण दीक्षित के नाम भी प्राप्त होते हैं। कहते हैं कि आपने कृष्ण यजुर्वेद तैत्तिरीय शाखा की शिक्षा अपने पिता से ही ग्रहण किया था। श्री तिरूमलजी से ऋग्वेद एवं सामवेद, सर्वश्री विष्णु चित्तजी एवं गुरु श्रीनारायण दीक्षितजी से षट् शास्त्रों की शिक्षा तथा श्री माधवेन्द्र पुरी से श्री भगवद् गीता, श्रीमद्भागवत, नारद पांचरात्र आदि वेदान्त शास्त्रों की शिक्षा ग्रहण की थी। आपश्री के दीक्षा गुरु श्री लक्ष्मण भट्टजी ने आपश्री को सावित्री मंत्र की दीक्षा दिया था। श्री वल्लभाचार्यजी ने भक्ति शास्त्रों का अध्ययन श्री लक्ष्मण बालाजी (श्री तिरुपति बालाजी) में विराज कर किया। श्रीवल्लभाचार्यजी का जगन्नाथपुरी का शास्त्रार्थ वि.सं. 1545 में हुआ। वहाँ के राजा ने जगदीश  मन्दिर में सभा का आयोजन किया। वहाँ पर पण्डितों का विशाल समुदाय एकत्रित हुआ। राजा लोकराज भोज देव ने धर्मसभा में चार प्रश्न उपस्थित किये – 1) मुख्य शास्त्र कौन सा है?, 2) मुख्य देव कौन हैं?, 3) मुख्य मंत्र क्या है?, 4) मुख्य कर्म क्या है? उपर्युक्त प्रश्नों पर वैष्णवों और मायावादीयो में परस्पर बहुत ही शास्त्रार्थ (वाद) हुआ। अन्त में श्रीवल्लभाचार्यजी ने भक्तिमार्गानुसार इसका निर्णय दिया। परन्तु मायावादी समग्र विद्वानों ने इसको स्वीकार न करते हुए हठ किया कि इस विषय का निर्णय भगवान् जगदीश पर ही छोड़ा जाय। विवाद बढ़ता हुआ जानकर राजा ने भी इसी का अनुमोदन किया। पुरोहित श्रीकृष्ण गुच्छिकार के द्वारा एक कोरा कागज एवं कलम और स्याही श्री जगदीशप्रभु के सम्मुख रखकर सावधानीपूर्वक पट मंगल कर दिया गया। कुछ समय बाद जब पुनः पट खोला गया तो उस कोरे कागज पर यह श्लोक लिखा हुआ प्राप्त हुआ –

एकंशास्त्रंदेवकीपुत्रगीतम, एको देवो देवकी पुत्र एव।

मंत्रोऽप्येकस्तस्य नामानि यानि कर्माऽप्येकं तस्य देवस्य सेवा।।

साक्षात् जगदीश  से उत्तर प्राप्त होने पर भी मायावादीयो की शंका समाप्त नहीं हुई तो उन्होंने हठाग्रह पूर्वक पुनः कोरा कागज एवं कलम रखवाया तब पुनः एक श्लोक लिखा प्राप्त हुआ जो निम्नलिखित है –

यः पुमान् पितरं द्वेष्टि तं विद्यादन्यरेतसम् ।

यः पुमानीश्वरं द्वेष्टि तं विद्यादन्त्यजोभ्दवम् ।।

इस निर्णय को पढ़कर राजा मायावादी पण्डितों पर क्रोधित हुआ और उन्हें तिरस्कृत कर बाहर निकलवाया एवं श्री वल्लभाचार्यजी को विजयमाला पहनाकर पूजन अर्चन किया।

श्री वल्लभाचार्यजी का जगदीश में जो एकादशी प्रसंग हुआ। वह इस प्रकार है -एक समय एकादशी के दिन श्रीमहाप्रभुजी जगदीश दर्शनार्थ पधारे तब गरूड़ स्तम्भ के पास ही मायावादियों में से किसी व्यक्ति ने उनकी परीक्षा करने के भाव से श्री जगदीश का प्रसाद ‘सखड़ी’ उन्हें दिया। श्रीमहाप्रभुजी ने उस प्रसाद को अपने दक्षिण श्रीहस्त में ग्रहण किया और वाम श्रीहस्त को वहीं पास में दीवार पर टिकाकर ‘महाप्रसाद’ की स्तुति करना प्रारम्भ कर दिया जो दूसरे दिन प्रातःकाल तक करते रहे। जब द्वादशी प्राप्त हो गयी तो आपश्री ने वह प्रसाद ग्रहण किया। इससे व्रत भंग भी नहीं हुआ और महाप्रसाद का अनादर भी नहीं हुआ। उपर्युक्त शास्त्रार्थ विजय के बाद आपश्री वहां से रवाना होकर अपने माता-पिता के साथ दक्षिण भारत के तीर्थ करते हुए वेंकटाचलम पहुंचे तथा वहां से तिरूपति बालाजी पधारे। वहाँ पर तिरूपति बालाजी के सान्निध्य में ही मि.चैत्र कृष्णा 6/9 वि.सं. 1546 में आपश्री के पिता श्री लक्ष्मण भट्टजी का देहावसान हो गया। उस समय आपश्री की आयु केवल 11 वर्ष की थी। इतनी अल्प वय में बालक श्रीवल्लभ ने अपने पिता के उत्तर कर्म के उपरान्त गम्भीर वचनों से अपनी माता को सान्त्वना प्रदान करते हुए विद्यानगर अपने मामा के पास छोड़ा एवं स्वयं पृथ्वी परिक्रमार्थ आगे पधारे। पृथ्वी परिक्रमा में आपश्री कई विशेष नियमों का पालन करते थे- वो- (1) शरीर पर बिना सिला वस्त्र पहनना, (2) गांव के बाहर डेरा डालना (मुकाम करना) रहना, (3) एवं एक भुक्त आदि। यात्रा के दौरान प्रारम्भ में आपश्री की प्रथम भेंट सिद्धपाद नामक गांव में विरक्त संन्यासी सर्वेष्वरजी से हुई। श्रीवल्लभाचार्यजी ने शास्त्रीय प्रमाणों केे आधार पर युक्ति युक्त उसे यह समझाया कि विरक्ति से भी बढ़कर प्रभु अनुरक्तिपूर्वक भगवद् भक्ति श्रेष्ठ है। इसके बाद वर्धा नगर में सेठ कपुरचन्द हरसानी तथा उनके सबसे कनिष्ठ पुत्र दामोदरदास हरसानी से आपश्री की भेंट हुई। श्रीमहाप्रभु के तेजस्वी स्वरूप के दर्शन करते ही श्री दामोदरदास के हृदय में भाव जागृत हुआ और आपश्री की शरण में वो आ गये। तब से आजीवन वे आपश्री के साथ ही रहे। वहां से आपश्री उज्जैन ऋषि सांदीपनि जी के आश्रम पधारे। वहाँ पर स्थल सुन्दर होते हुए भी कोई वृक्ष नहीं था। अतः आपश्री ने एक पीपल के पत्ते को भूमि पर रोप दिया। वह एक रात में ही विशाल वृक्ष बन गया। उसी वृक्ष के नीचे आपश्री विराजे तथा अनेक मायावादी पंडितों को आपश्री ने शास्त्रार्थ में पराजित किया। इसी समय वि.सं. 1547 में प्रारम्भिक दिवस मि.चैत्र शु. 1 को उज्जैन के तीर्थ पुरोहित नरोत्तम शर्मा के लिए आपश्री ने वृत्तिपत्र भी प्रदान किया। यह पत्र तेलगू तथा संस्कृत में लिखित है।

वि.सं. 1547 के अन्त में बुन्देलखण्ड में वेत्रवती नदी के तट पर स्थित ओड़छा नगरी जब आपश्री पधारे तब वहां के राजा ने आपश्री को राज्यसभा में पधराया एवं वहीं पर घट-सरस्वती के साथ आपश्री का शास्त्रार्थ हुआ जिसमें घट सरस्वती पराजित हो गया। घट सरस्वती में विशेषता यह थी कि उसने अपनी मंत्र शक्ति से सरस्वती को घट में बन्द कर दिया था। श्रीमहाप्रभुजी वाक्पति हैं अतः बन्धित सरस्वती को देखकर आपश्री को कष्ट हुआ और आपश्री ने अपने प्रताप तेज से उसकी मंत्र शक्ति को विफल करके सरस्वती को बन्धन मुक्त कराया। तब सरस्वती ने उसको संकेत देना बन्द कर दिया और घट सरस्वती पराजित हो गया। इस विजय से ओड़छा नरेश राजा रामभद्र ने श्रीमहाप्रभुजी को गुरु की पदवी से अलंकृत किया।

श्रीमहाप्रभु वल्लभाचार्यजी ने तीन बार पृथ्वी परिक्रमा किया और तीनों बार पैदल चलकर किया। यात्राओं के दौरान श्रीमहाप्रभुजी, श्रीमुकुन्दरायजी एवं श्रीअनन्तशयनजी  (शालिग्रामजी) इन श्रीविग्रह की सेवा करते थे। श्रीवल्लभाचार्यजी ने प्रथम पृथ्वी परिक्रमा वि.सं. 1548 मि. वैशाख कृष्णा 2 को प्रारम्भ किया। द्वितीय पृथ्वी परिक्रमा वि.सं. 1555 मि. ज्येष्ठ शु.2 को प्रारम्भ हुई और 6 वर्ष में जाकर वि.सं. 1561 को समाप्त हुई। तीसरी परिक्रमा वि.सं. 1561 अक्षय तृतीया को प्रारम्भ हुई और 6 वर्षों में जाकर वि.सं. 1568 में पूर्ण हुई। इन तीनों परिक्रमा के संवत् के विषय में इतिहासज्ञ में अनेक मत प्राप्त होते हैं।

प्रथम परिक्रमा के बाद या समापन में आपश्री वि.सं. 1550 की ग्रीष्म ऋतु के अन्त में ब्रज में पधारे। उन दिनों वहां सिकन्दर लोदी का शासन था। वह दिल्ली का बादशाह एवं हिंदुओं का कट्टर विरोधी था तथा हिंदुओं से घृणा करता था। वह लोगोको श्रीयमुनाजी में स्नान दान नहीं करने देता था एवं हर हिन्दु धार्मिक कार्यों पर प्रतिबंध लगाकर बाधा उपस्थित करता था। उसने विश्राम घाट पर एक ताबीज यंत्र लटका दिया था। जो भी उसके नीचे से होकर निकलता था उसकी चोटी साफ हो जाती थी और उसे दाढ़ी निकल आती थी। ऐसी बाधा उसने उपस्थित की थी। श्री वल्लभाचार्यजी स्वयं अपने सेवकों सहित वहाँ से यमुना स्नानार्थ पधारे जिससे उस यंत्र का सब प्रभाव नष्ट हो गया। श्रीमहाप्रभुजी ने उस आसुरी यंत्र के बाधा का निवारण किया। आपश्री ने उसके जवाब में एक यंत्र दिया जोनपुर में लटकाया गया। उसके नीचे से जो भी मुसलमान निकलता था उसकी दाढ़ी साफ होकर चुटियां निकल आती थीं।

श्रीमहाप्रभुजी का विवाह द्वितीय पृथ्वी परिक्रमा के समय काशी में पंचगंगा घाट पर हुआ। जहाँ पर आज भी आपश्री की बैठकश्री स्थित है। श्रीमहाप्रभुजी ने भगवान पाण्डुरंग श्रीविट्ठलनाथजी (पंढरपुर) की आज्ञा से विवाह किया। आपश्री अपनी माताश्री के पास विद्यानगर आकर उन्हें साथ लेकर काशी आ गये। वहाँ पर माता की अनुमति से वि.सं. 1558 मि. आषाढ़ शु.5 को आपश्री ने सजातीय मधु मंगल नामक तैलंग विद्वान ब्राह्मण की सुयोग्य कन्या सुलक्षणा के साथ विधिपूर्वक विवाह किया। श्रीमहाप्रभुजी की धर्मपत्नी (बहूजी) का नाम श्री महालक्ष्मीजी हुआ जिन्हें सम्प्रदाय में अक्काजी भी कहा जाता है। वे काशी के ही मधु मंगल ब्राह्मण की कन्या थीं। कहीं-कहीं मधुमंगल का नाम देवभट्ट भी प्राप्त होता है।

श्रीमहाप्रभुजी विजय नगर तीसरी पृथ्वी परिक्रमा के समय पधारे। विजय नगर उस समय विद्यानगर नाम से जाना जाता था। यह नगर ‘‘तुंगभद्रा“ नदी के किनारे स्थित था एवं वहाँ के राजा का नाम ‘कृष्णदेव राय’ था। राजा कृष्णदेव राय के शासन का इतिहास संगत काल वि.सं. 1566 से वि.सं. 1586 तक का है। ‘विद्यानगर’ में श्रीमहाप्रभुजी के मामा जी रहते थे और उनका नाम ‘विद्या भूषण’ था। वे राजा कृष्णदेव राय के यहाँ ‘‘दानाध्यक्ष“ पद पर नियुक्त थे। श्रीमहाप्रभुजी का परिचय राजा कृष्णदेव राय से उनके मामाजी विद्या भूषण ने करवाया। राजा कृष्णदेव की रानी आचार्य व्यासतीर्थ की शिष्या थी। व्यासतीर्थ मध्व सम्प्रदाय के थे और ‘दण्डी’ संन्यासी थे। विद्यानगर तुंगभद्रा नदी के दक्षिण की और बसा हुआ था। इसका विस्तार पूर्व से पश्चिम 16 मील और उत्तर से दक्षिण 10 मील था। उस समय वहाँ की जनसंख्या 30 लाख की रही। इस राज्य का विस्तार आधिपत्य प्रायः सम्पूर्ण दक्षिण पर था। मल्बार तट भटकल बन्दरगाह से कन्याकुमारी तक 600 मील, कोरोमण्डल किनारे की तरफ राजमहेन्द्र से कन्याकुमारी तक 800 मील और भटकल से राजमहेन्द्र तक 625 मील था। उसमें 70 प्रख्यात बन्दरगाह भी थे। राज्य का कार्य चन्द्रवंशी राजा कृष्णदेव राय चलाते थे। राजा कृष्णदेव राय के दरबार में शास्त्रार्थ माध्व सम्प्रदाय और शांकर सम्प्रदाय के मध्य हुआ। माध्व सम्प्रदाय वालों के पक्ष में श्री निम्बार्क श्रीविष्णु स्वामी और श्रीरामानुज सम्प्रदाय वाले थे। शांकर मत वालों के पक्ष में शैव, शाक्त, गाणपत्य और सौर सम्प्रदाय वाले थे। मध्यस्थ गौतम, कणाद, मीमांसक आदि थे। वैष्णव धर्म का प्रतिपादन करने के लिए श्रीमहाप्रभुजी ने सभा में तब प्रवेश किया जब शांकर सम्प्रदाय के आचार्य विद्यातीर्थ माध्व सम्प्रदाय के आचार्य व्यासतीर्थ को प्रायः पराजित कर चुके थे। श्रीवल्लभाचार्यचरण के साथ शास्त्रार्थ 28 दिन चला और शांकर सम्प्रदाय वालों पर श्रीमहाप्रभुजी की विजय हुई। विद्यानगर के राजा श्रीकृष्णदेव राय ने श्रीमहाप्रभुजी का कनकाभिषेक कराया जिसमें 100 मन सोना था। उस स्वर्ण को स्नान जलवत् मानकर अंगीकार नहीं किया और उसे ब्राह्मण में बंटवा दिया। राजा कृष्णदेव राय द्वारा थाल भरकर भेंट की हुई स्वर्ण मुहरों में से श्रीमहाप्रभुजी ने केवल 7 स्वर्ण मुहरें दैवी द्रव्य रूप आपने स्वीकार किया और उनसे श्रीनाथजी के नूपुर सिद्ध करवाये।

श्रीमहाप्रभुजी ने राजा कृष्णदेव  राय को उपदेश में 7 मुख्य बातें बतायी- 1) आश्रम धर्म का पालन, 2) प्रजा की रक्षा, 3) भगवान की सेवा, 4) भगवान के भक्तों का सत्संग, 5) विद्वानों की वृत्ति का प्रबन्ध एवं उनका लोक शिक्षण में उपयोग, 6) दीनों पर दया, 7) नीति और विनय के द्वारा यश का विस्तार। पूरा श्लोक इस प्रकार है –

आश्रित्याश्रमधर्ममत्र भवता स्थेयं प्रजा रक्षता।

सेव्यः श्रीरमणः सदा हरिजनैः कार्याऽधिका संगतिः।

आजीव्यं विदुषां विधाय जगतां योज्याश्च ते शिक्षण

दीनानां दयया, नयेन विनयैः कीर्तिर्विधेयाऽचला।

उस समय आचार्यचरण श्रीमहाप्रभुजी को विरुदावलि समर्पित की गई वह –

‘‘ श्रीवेदव्यास – विष्णु स्वामी- सम्प्रदाय- समुद्धार संभृत –

श्रीपुरुषोत्तम वदनावतार सर्वान्मायसंचारवैष्णवान्मायप्राचुर्यप्रकार – श्रीबिल्वमंगलाचार्य साम्प्रदायार्पितःसाम्राज्यासनाखंड भूमण्डलाचार्यवर्य जगद्गुरु“

विद्यानगर में कनकाभिषेक के बाद आपने कुछ समय वहीं पर निवास किया और उसी समय में वहीं पर अणुभाष्य एवं भागवतार्थ निबन्ध का लेखन प्रारम्भ किया। श्रीमहाप्रभुजी के चित्त में दैवी जीवों के उद्धार की चिन्ता रहती थी। इस चिन्ता का समाधान साक्षात् श्रीगोवर्धनधरण श्रीनाथजी ने किया। वि.सं. 1549 मि. श्रावण शुक्ला 11 की अर्द्धरात्रि में श्रीमद् गोकुल में श्रीगोविन्द घाट पर साक्षात् प्रकट होकर श्रीनाथजी ने आज्ञा किया कि ब्रह्म सम्बन्ध मंत्र दीक्षा द्वारा दैवी जीवों को शरण दीजिये। आज भी श्रीमद् गोकुल में उसी स्थान पर श्री श्रीनाथजी एवं श्रीमहाप्रभुजी की संयुक्त बैठक विद्यमान है। सर्वप्रथम प्रातः आचार्यजी ने स्वहस्त से सिद्ध किया हुआ पवित्रा श्री……प्रभु को धराया। तभी से आज तक पुष्टि मार्ग में श्रा.शु. 11 को श्री……प्रभु को पवित्रा धराने का प्रकार प्रवर्तित है। श्रीमहाप्रभुजी ने सर्वप्रथम ब्रह्म संबंध मंत्र दीक्षा दामोदरदास हरसानीजी को दिया। जब आपश्री तृतीय पृथ्वी परिक्रमा में रहे तब झारखण्ड में श्रीनाथजी ने गोवर्धनपर्वत पर आकर तुरन्त मिलने की आज्ञा की। (लगभग वि.सं. 1549/1550) श्री गोवर्धन पर्वत पर श्रीमहाप्रभुजी का श्रीनाथजी से मिलन हुआ। तब श्रीजी ने सहकुटुम्ब निकट रहकर सेवा करने की आज्ञा की। श्रीमहाप्रभुजी के दो पुत्र थे – (1) श्रीगोपीनाथजी, (2) श्रीविट्ठलनाथजी (गुसांईजी)। चंपारण्य में आपश्री ने वसंतोत्सव मनाया, वहां श्रीमुकुन्दप्रभु को आपने डोल झुलाया था।

श्री वल्लभाचार्यजी के जीवन का उत्तरार्द्ध अडैल एवं काशी में व्यतीत हुआ। (अडेल-इलाहाबाद के निकट त्रिवेणी संगम से कुछ दूरी पर वल्लभघाट पर आज भी श्रीमहाप्रभुजी की बैठक स्थित है)। श्रीमहाप्रभुजी अपने उत्तरार्द्ध काल में पुनः ब्रज में वि.सं. 1567 में एक बार पधारे थे। उस यात्रा में आगरा से कुछ दूर रुनकता नामक गांव में यमुना के तट गौ   घाट पर सूरदास से भेंट हुई थी। वहाँ पर श्रीमहाप्रभुजी के वचन श्रवण करके सूरदासजी अवनत हो गये और श्रीमहाप्रभुजी उनकी वाणी सुनकर अति प्रसन्न हुये। श्री वल्लभाचार्यजी ने सूरदासजी को श्रीयमुनाजी में स्नान करके आने की आज्ञा दी। फिर उन्हें ब्रह्मसंबंध कराकर शरण में लिया। फिर आपश्री गोकुल पधारे तदनन्तर श्रीगोवर्धनपधार कर वहाँ पर कुम्भन दासजी के साथ सूरदासजी को भी श्रीनाथजी की कीर्तन सेवा प्रदान किया। पत्रावलंबन- संवत् 1564 चैत्र मास में आचार्य श्रीमहाप्रभुजी काशी में पधारे। इस समय श्रीमहाप्रभुजी काशी के सेठ पुरुषोत्तमदासजी के गृह में विराजते थे। उस समय वहां हुए शास्त्रार्थ में मायावादी विद्वान अपना मत पत्र पर लिखकर काशी विश्वनाथ मंदिर के द्वार पर लगा देते थे तब श्रीमहाप्रभुजी उन प्रश्नों के उत्तर लिखकर पुनः विश्वनाथ मंदिर के द्वार पर लगवा देते थे। इसी क्रम में यह शास्त्रार्थ काफी दिन चला जो आज एक ग्रंथ ‘‘पत्रावलम्बन“ के रूप में कुछ उपलब्ध भी है। इसका समय लगभग वि.सं. 1568 कहा जाता है। कहते हैं कि यह शास्त्रार्थ 30 दिनों तक चला।

श्रीवल्लभाचार्यजी ने श्रीभागवत की अपनी टीका श्रीसुबोधिनीजी  का श्रवण सेठ पुरुषोत्तमदासजी को काशी में जतनबड़ स्थित बैठक में कराया। श्रीमहाप्रभुजी को लीला प्रवेश की भगवद् आज्ञा तीन बार हुई। प्रथम आज्ञा गंगासागर पर, द्वितीय आज्ञा मधुवन में, इन दोनों आज्ञाओं का आपश्री ने जीवोद्धारार्थ तथा भगवन्नाम सेवार्थ पालन नहीं किया। परन्तु जब तृतीय आज्ञा अड़ैल में हुई तो आपश्री ने सब कुछ जहां का तहां छोड़कर लीला में प्रवेश किया। इस विषय  पर लगभग प्राचीन सभी टीकाकार क्रमशः  प्रथम आज्ञा देहत्याग की, द्वितीय आज्ञा लोक त्याग की ऐसा अर्थ स्वीकार करते हैं। यहाँ पर लोक त्याग से संन्यास ग्रहण की आज्ञा है, ऐसा भी मानते हैं। उपर्युक्त दोनों आज्ञाओं का पालन नहीं होने में श्रीभागवतार्थ प्रकटन ही कारण रहा।

श्रीवल्लभाचार्यजी ने 52 वर्ष में संन्यास ग्रहण किया। श्री आचार्यचरण को संन्यास के प्रेष्य मंत्र का उपदेश माधवेन्द्र यति ने काशी में हनुमान घाट पर दिया। संन्यास ग्रहण करने पर श्रीमहाप्रभुजी का नाम ‘पूर्णानन्द’ रखा गया। कुछ विद्वानोंके अनुसार श्रीमहाप्रभुजी ने अडै़ल से प्रयाग पधार कर ‘नारायणेन्द्रतीर्थ’ से संन्यास ग्रहण किया। संन्यास की लगभग 4 स्थितियों में आपश्री (पूर्णानन्द) विराजे- (1) कुटीचक (2) बहूदक (3) हंस (4) परमहंस।

अन्तिम समय में आपश्री काशी के हनुमान घाट पर विराजे, जहाँ पर आज भी आपश्री की बैठकजी स्थित है।

श्री आचार्यचरण ने ‘आसुर व्यामोहन’ लीला- वि.सं.1587 मि. आषाढ़ शु.2, रविवार को रथयात्रा उत्सव के दिन मध्यान्ह में हनुमान घाट काशी में सुर सरिता गंगाजी के प्रवाह में प्रवेश करके किया। उस समय आपकी आयु 52 वर्ष रही। श्रीमहाप्रभुजी ने लीला प्रवेश के पूर्व 40 दिन का व्रत तथा मौन धारण किया। आपने अन्तिम समय दोनों पुत्रों को अन्तिम उपदेश रेती पर अंगुली से लिखकर जो दिया उसे शिक्षाश्लोकी कहते हैं। वे ‘सार्धत्रय’ अर्थात् साढ़े तीन श्लोक हैं –

यदा बहिर्मुखा यूयं भविष्यथ कथंचन।

तदा कालप्रवाहस्था देहचित्तादयोऽप्युत।।1।।

सर्वथा भक्षयिष्यन्ति युष्मानिति मतिर्मम।

न लौकिकः प्रभुः कृष्णो मनुते नैव लौकिकम् ।।2।।

भावस्तत्राप्य स्मदीयः सर्वस्वश्चैहिकश्च सः।

परलोकश्च तेनायं सर्वभावेन सर्वथा ।।3।।

सेव्यः स एव गोपीशो विधास्यत्यखिलं हि नः।।31/2।।

जिस समय श्री आचार्यचरण ने इन ‘साढ़े तीन’ श्लोक लिखकर कहे तब ही वहां पर साक्षात् भगवान् प्रकट हुए और श्री…..प्रभु ने डेढ़ श्लोक कहकर श्रीआचार्यजी द्वारा उपदिष्ट शिक्षा श्लोको को पूर्ण किया जो निम्नलिखित है –

मयि चेदस्ति विश्वासः श्रीगोपीजनवल्लभे ।।4।।

तदा कृतार्था यूयं हि शोचनीयं न कर्हिचित् ।

मुक्तिर्हित्वाऽन्यथा रूपं स्वरूपेण व्यवस्थिति।। 5।।

श्री वल्लभाचार्य चरण ने जिन ग्रंथो की रचना की-

(1) भगवान् कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास रचित ब्रह्मसूत्र (तत्त्व सूत्र) पर भाष्य, जिसे अंणुभाष्य कहते हैं।

(2) श्री जैमिनी मुनि द्वारा रचित जैमिनी सूत्र पर भाष्य, जिसे पूर्व मीमांसा भाष्य कहते हैं।

(3) श्रीमद्भागवत महापुराण पर टीका, जिसे ‘सुबोधिनी’ कहा जाता है।

(4) तत्त्वार्थदीप निबन्ध – यह श्लोकात्मक स्वतंत्र ग्रंथ है। इसके तीन प्रकरण हैं –

प्रथम – शास्त्रार्थ प्रकरण

द्वितीय- सर्वनिर्णय प्रकरण

तृतीय- भागवतार्थ प्रकरण। इस स्वरचित ग्रंथ पर संस्कृत टीका ‘प्रकाश’ भी आपश्री ने स्वयं ने ही किया है

(5) पत्रावलम्बन – यह ग्रंथ जब काशी में सेठ पुरुषोत्तम दास के गृह में आपश्री विराजते थे तब पत्र द्वारा मायावादीयो के साथ जो शास्त्रार्थ हुआ उसी का संकलन है।

(6) गायत्री भाष्य

(7) भगवत्पीठिका

(8) षोडशग्रन्थ – यह छोटे-छोटे 16 ग्रंथो का एक संग्रह है, जो कि अत्यन्त उपयोगी एवं प्रौढ़ है। इन्हें वल्लभ गीता भी कहा जाता है।

(9) अन्य और भी स्फुटाष्टक स्तोत्र संग्रह आदि कई ग्रन्थ हैं। ये समग्र ग्रंथ संस्कृत भाषामें ही लिखे गये हैं। अन्य और भी कुछ ग्रंथो का उल्लेख मिलता भी है तो वे अप्राप्त हैं।

श्रीमहाप्रभुजी द्वारा रचित षोडश ग्रंथों के क्रमशः नाम-

(1) श्रीयमुनाष्टकम् (2) बालबोधः, (3) सिद्धान्तमुक्तावली, (4) पुष्टिप्रवाहमर्यादाभेदः, (5) सिद्धान्तरहस्यम, (6) नवरत्नम् (7) अन्तःकरणप्रबोधः, (8) विवेकधैर्याश्रयः, (9) श्रीकृष्णाश्रयः, (10) चतुःष्लोकी, (11) भक्तिवर्धिनी, (12) जलभेदः, (13) पंचपद्यानि, (14) संन्यासनिर्णयः, (15) निरोधलक्षणम् (16) सेवाफलम् (सविवरणम्।)

सम्पूर्ण भारत वर्ष में श्रीमहाप्रभुजी की बैठकें- कुल बैठकें 84 हैं जो निम्नलिखित हैं –

(1) उत्तर प्रदेश = 35

(2) मध्य प्रदेश = 4

(3) बिहार प्रदेश = 2

(4) महाराष्ट्र प्रदेश = 4

(5) गुजरात प्रदेश = 19

(6) तमिलनाडु प्रदेश = 7

(7) आंध्रप्रदेश = 2

(8) कर्नाटक प्रदेश = 3

(9) केरल प्रदेश = 2

(10) हरियाणा प्रदेश = 1

(11) बंगाल प्रदेश = 1

(12) उड़ीसा प्रदेश = 1

(13) राजस्थान प्रदेश = 1

(14) अन्य = 2

   84

कुछ बैठकें इसके अतिरिक्त भी हैं। उपर्युक्त बैठको में भी कई बैठकें अप्रकट हैं।

श्रीमहाप्रभुजी की 84 बैठको के नाम

(1) गोकुल गोविन्द घाट (2) गोकुल भीतर की बैठक (3) गोकुल शैया मन्दिर (4) श्री वृन्दावन (5) श्री मथुरा विश्रामघाट (6) मधुवन (7) कमोदवन (8) बहुलावन (9) राधाकृष्ण कुण्ड (10) मानसी गंगा (11) परासोली चन्द्र सरोवर (12) अन्योर (13) गोविन्द कुण्ड (14) सुन्दरशिला श्री गिरिराज सन्मुख (15) श्री गिरिराजजी की बैठक (गुलाल कुण्ड) (16) कामवन श्रीकुण्ड (17) गहवर वन कृष्ण कुण्ड मोरकुटी (18) संकेतवन विवाह स्थल (19) नन्दगाँव (20) कोकिलवन (21) भांडीरवन (22) मानसरोवर (23) सुकर क्षेत्र (सोरो) (24) चित्रकूट (25) अयोध्याजी (26) नैमिष्यारण्य (27) काशी-सेठ पुरुषोत्तम दास के घर की (28) काशी-हनुमानघाट (29) हरिहर क्षेत्र (30) जनकपुरी (31) गंगासागर (32) चम्पारण्य-जन्मस्थली (33) चम्पारण्य छठी की (34) जगन्नाथपुरी (35) पंढरपुर (36) नासिक तपोवन (37) पन्ना नृसिंहजी (38) लक्ष्मण बालाजी (तिरूपति) (39) श्रीरंगजी (40) विष्णु कांची (41) सेतुबन्ध रामेंश्वर (42) मलयाचल (43) लोहगढ़ (गोवा की) (44) ताम्रपर्णी नदी के तीर पर (45) कृष्णा नदी के तीर पर (46) पंपा सरोवर (47) पद्मनाथजी (48) जनार्दन (49) विद्यानगर (50) त्रिलोकभानजी (51) तोताद्री पर्वत (52) दरवेसनजी (53) सूरत- अश्विनी कुमार (54) भरूच (55) मोरवी (56) नवानगर – (जामनगर नागमती एवं रंगमती नदी के तट) (57) खम्भालिया (58) पिंडतारक (पिंडारा) (59) मूल गोमती (60) द्वारकाजी (61) गोपी तलैया (62) शंखोद्धार (63) नारायण सरोवर (64) जूनागढ़ दामोदर कुण्ड तथा रेवती कुण्ड गिरिनार तरहटी की (65) प्रभास क्षेत्र (प्रभास पाटन) (66) श्री माधोपुर (67) गुप्त प्रयाग (68) तगड़ी (69) नरोडा (अहमदाबाद) (70) गोधरा (71) खेरालू (72) सिद्धपुर- सरस्वती नदी के तट पर (73) अवन्तिकापुरी (उज्जैन) (74) पुष्करजी (75) कुरूक्षेत्र (76) हरिद्वार (गंगातट) (77) बदरिकाश्रम (78) केदारनाथ (79) व्यासाश्रम (80) हिमाचल प्रदेश (81) व्यासगंगा के तीर पर (82) मंदराचल पर्वत (83) अड़ैल निजगृह (संगम-प्रयाग) (84) चरणाद्रि (श्रीगुसांईजी प्राकट्य स्थल चुनार)।

श्रीमहाप्रभु के अनन्य ऐसे 84 वैष्णवों की वार्ता (कथानको) का संग्रह है-

84 वैष्णवों के नाम– (1) दामोदरदास हरसानीजी (2) कृष्णदास मेंघन (3) दामोदरदास सम्भरवाले (4) पद्मनाभदास (5) (सरोज बाई) रजोबाई क्षत्राणी (6) सेठ पुरुषोत्तमदास (7) रामदास सारस्वत (8) गदाधर दास (9) वेणीदास माधवदास (10) गोविन्द दास भल्ला (11) हरिवंश पाठक (12) अम्मा क्षत्राणी (13) गज्जन धावन (14) नारायण दास ब्रह्मचारी (15) महावन की एक क्षत्राणी (16) जीयदास सूरी (17) देवा कपूर (18) दिनकरदास सेठ (19) मुकुन्ददास कायस्थ (20) प्रभुदास जलोटा (21) प्रभुदास भाट (22) पुरुषोत्तम दास (23) त्रिपुरदास कायस्थ (24) पूरणमल क्षत्रीय (25) यादवेन्द्रदास कुम्हार (26) गुसाईदास सारस्वत (27) माधवभट्ट काश्मीरी (28) गोपाल दास बांसवाड़ा वाले (29) पद्मा रावल (30) पुरुषोत्तम गोपी साँचोरा (31) जगन्नाथ जोशी  की माता (32) राजा व्यास साँचोरा (33) रामदास साँचोरा (34) गोविन्द दुबे (35) राजा दूबे और माधो दुबे (36) उत्तम श्लोक दास (37) ईश्वर दूबे (38) वासुदेव दास छकड़ा (39) वेणुदास सारस्वत (40) जगदानन्द सारस्वत (41) आनन्ददास व विश्वम्भरदास (42) अड़ैल की एक ब्राह्मणी (43) प्रयाग की एक क्षत्राणी (44) सिंहनंद निवासी एक क्षत्राणी (45) कृष्णदास (46) बुलामिश्र (47) मीराबाई के पुरोहित रामदास (48) रामदास चौहान (49) पंडित रामानन्द सारस्वत (50) विष्णु दास छीपा (51) जीवनदास क्षत्री (52) भगवानदास सारस्वत (53) भगवान दास साँचोरा (54) अच्युतदास सनोढि़या (55) बड़े अच्युतदास गौड़ ब्राह्मण (56) अच्युतदास सारस्वत (57) नारायणदास कायस्थ (58) नारायणदास भाट (59) नारायणदास ब्राह्मण (60) सिंहनद की क्षत्राणी (61) वीर बाई (62) सिंहनंद के क्षत्रिय पति-पत्नी (63) अडैल का सुनार (64) अन्य मार्गीय से स्नेह रखने वाला एक क्षत्रिय वैष्णव (65) लघु पुरुषोत्तम दास (66) कविराज भाट (67) गोपाल दास इटोंडा क्षत्रिय (68) जनार्दन दास चोपड़ा (69) गडूस्वामी (70) कन्हैयालाल (71) नरहरदास गौड़ीया (72) नरहर संन्यासी (73) सदुपाण्डे मानिकचन्द पाण्डे (74) गोपाल दास जटाधारी (75) कृष्णदास व उनकी पत्नी (76) सन्तदास चोपड़ा (77) सुन्दरदास माधवदास (78) मावजी पटेल (79) गोपाल दास क्षत्रिय (80) बादरायण पुष्करणा (81) सूरदास (82) परमानन्ददास (83) कुम्भनदास (84) कृष्णदास अधिकारी।

श्री वल्लभाचार्यजी को अपने पिता से श्री मदनमोहनजी का युगल स्वरूप प्राप्त हुआ था जो वर्तमान में कामवन में विराजमान है। श्रीवल्लभाचार्यजी को अपने काकाजी श्रीजनार्दनभट्ट से ब्रह्माजी द्वारा पूजित एवं भगवान श्रीकृष्ण के मुखारविन्द से स्पर्शीत ‘शालिग्रामजी शिला “ एवं गंगाधरभट्ट प्रदत्त श्रीमद्भागवत महापुराण प्राप्त हुए और श्रीगोविन्दाचार्य की तरफ से प्राप्त ‘‘श्रीमुकुन्दरायप्रभु“ का स्वरूप आपश्री की माताजी को प्राप्त हुआ जो बाद में श्रीमहाप्रभुजीको मिला। श्रीमहाप्रभुजी के समय में व्रज में एक और श्रीकृष्ण भक्त आचार्य श्रीकृष्ण चैतन्य महाप्रभु हुए थे। अड़ैल में भी एक बार चैतन्य महाप्रभु आपश्री के घर पधारे थे। कहते हैं कि एक बार पुरी की यात्रा भी आप दोनों ने साथ-साथ की थी।

माध्व सम्प्रदाय के आचार्य श्रीव्यासतीर्थजी से आपश्री का निकट सम्बन्ध था। श्रीकृष्ण चैतन्य के विद्वान  शिष्य रूप गोस्वामी एवं सनातन गोस्वामी से आपश्री का विशेष स्नेह था तथा कैवलाद्वैत के विद्वान श्रीमधुसूदन सरस्वती तथा निम्बार्क सम्प्रदाय के (केशव भट्ट) केशवजी भट्ट काश्मीरी से भी आपश्री का सौहार्द था। माधव भट्ट काश्मीरी ये केशव भट्ट के भ्राता थे। केशव भट्ट ने अपना प्रिय शिष्य माधवभट्ट को श्रीवल्लाचार्यजी को ही सौंप दिया था। श्रीवल्लभाचार्यजी के ग्रंथों का लेखन श्रीमाधवभट्ट काश्मीरी करते थे। श्रीमहाप्रभुजी ने 3 सोमयज्ञ किये थे तथा आपश्री नित्य अग्निहोत्र भी करते थे। श्रीमहाप्रभुजी ने संन्यास होने के समय वि.सं. 1587 मि. ज्येष्ठ कृ. 10 के दिन श्रीमहाप्रभुजी 52 वर्ष 2 मास तथा 7 दिन पर्यन्त भूतल पर विराजे।