श्रीगुसांईजी के सप्तम लालजी श्रीघनश्यामजी

श्रीघनश्यामजी का प्राकट्य प्रा0 वि0 सं0 1628 मि0 मार्ग0 कृ0 13 शनिवार में भया। कुछ लोग गोकुल में को मथुरा-सतघरा भी मानते हैं। श्रीघनश्यामजी श्रीगुसांईजी के द्वितीय बहूजी के एकमात्र पुत्र थे। आपश्री के माताजी के असमय में लीाला प्रवेश होने से प्रथम पुत्र श्रीगिरिधरजी के बहूजी श्रीभामिनीजी ने आपश्री का पालन-पोषण किया। श्रीघनश्यामजी का यज्ञोपवीत एवं विवाह वि0 सं0 1635 मि0 माघ शु0 10 को गोकुल में यज्ञोपवीत हुआ तथा विवाह वि. सं. 1641 गोकुल में हुआ। आपश्री के बहूजी का नाम श्रीकृष्णावतीजी है। आपश्री के कुल तीन सन्तानें थीः-

(1) श्रीव्रजपालजी, प्रा0 वि0 सं0 1651

(2) श्रीगोपेन्द्रजी (चाचा श्रीगोपेश्वरजी), प्रा0 वि0 सं0 1662, मि0 भा0 कृ0 5

तथा एक कन्या जानकीजी।

श्रीघनश्यामजी संस्कृत एवं ब्रजभाषा के विद्वान् थे। आपश्री की संस्कृत में ‘मधुराष्टक’ एवं ‘गुप्तरस’ पर टीका है तथा व्रजभाषा में कुछ स्फुट पद प्राप्त होते हैं।

आपश्री ने वि0 सं0 1669 के लगभग श्रीगोकुल में लीला प्रवेश किया। आपश्री की एक बैठक है- वह श्रीगोकुल में श्रीमदनमोहनजी के मन्दिर में गुुफा में है। कहते हैं एक समय आपश्री के श्री ठाकुरजी चोरी से पधारे तब आप अन्न-जल त्यागके गुफा में विराजे एवं अत्यन्त विरह से निजलीला में पधारे।