श्रीगुसांईजी के षष्ठ लालजी श्रीयदुनाथजी

षष्ठ लालजी श्रीयदुनाथजी का प्राकट्य वि0 सं0 1615 मि0 चैत्र शु0 6 रविवार के दिन अड़ैल श्रीमहाप्रभुजी के निजगृह की बैठक में हुआ। आपश्री का उपनाम महाराजजी था। आपश्री का यज्ञोपवीत श्रीमद् गोकुल में कुलमर्यादानुसार वि0 सं0 1623 के लगभग हुआ। आपश्री का विवाह श्रीमद् गोकुल में वि0 सं0 1630 के लगभग सुसम्पन्न हुआ। कुछ इतिहासकार वि0 सं0 1626 के लगभग भी मानते हैं। आपश्री के सौ0 बहूजी का नाम महारानीजी था।

आपश्री के पाँच पुत्र एवं एक कन्या थीं-

प्रथम पुत्र-श्रीमधुसूदनजी-प्रा0 वि0 सं0 1634, मि0 चै0 शु0 2

द्वितीय पुत्र-श्रीरामचन्द्रजी-प्रा0 वि0 सं0 1638, मि0 भा0 कृ0 7

तृतीय पुत्र-श्रीजगन्नाथजी-प्रा0 वि0 सं0 1682, मि0 श्रा0 शु0 2

चतुर्थ पुत्र-श्रीबालकृष्णजी-प्रा0 वि0 सं0 1644, मि0 ज्ये0 शु0 3

पन्चम पुत्र-श्रीगोपीनाथजी-प्रा0 वि0 सं0 1647, मि0 आश्विन0 कृ0 3

और कन्या श्रीदमयन्तीजी

वैसे तो आपश्री का स्नेह सब से था परन्तु तृतीय लालजी श्रीबालकृष्णजी से विशेष स्नेह रहा।

सर्वप्रथम श्रीविट्ठलनाथजी (श्रीगुसांईजी) ने अपने सातों पुत्रों का ‘बॅंटवारा’ करने का निर्णय किया तब सातों पुत्रों को पृथक्-पृथक् घर एवं स्वरूप पधरा देने का विचार किया। उस समय जब क्रमशः विभाग होने लगा तो श्रीगुसांईजी ने षष्ठ लालजी श्रीयदुनाथजी को श्रीबालकृष्णजी का स्वरूप पधराने का विचार किया परन्तु षष्ठ लालजी श्रीयदुनाथजी (महाराजजी) ने उन स्वरूप को स्वीकार नहीं किया। अर्थात् उस बॅंटवारे को ही स्वीकार नहीं किया। फलतः अन्य भ्राताओं का बॅंटवारा पूर्ण हो गया, केवल श्रीयदुनाथजी को छोड़कर। इस कठिन काल में आपश्री के बड़े भ्राता तृतीय लालजी श्रीबालकृष्णजी ने आपश्री को अपने साथ विराजकर अपने ही ‘बाँट’ में प्राप्त तृतीय निधिस्वरूप श्रीद्वारिकाधीशजी की सेवा करने की सहर्ष स्वीकृति प्रदान की। अतः श्रीयदुनाथजी उन्हीं के साथ विराजकर उन्हीं के बाँट में प्राप्त स्वरूप की सेवा करते रहे। इसी से यह सिद्ध होता है कि श्रीयदुनाथजी का श्रीबालकृष्णजी से विशेष स्नेह रहा। अर्थात् श्रीगुसांईजी के समय षष्ठ गृह स्वरूप का पृथक प्रकार प्रकारित नहीं होता है। यह प्रसंग ‘कांकरोली का इतिहास’ नामक ग्रन्थ के प्रथम भाग (द्वादश उल्लास) में विस्तार से समझाया गया है।

‘कांकरोली का इतिहास’ (प्रथम भाग-तेरहवाँ उल्लास पृ0 सं0 50) के अनुसार षष्ठ गृह और तृतीय गृह दोनों संयुक्तरूप से ही थे। फिर जैसा कि उल्लेख है कि समयानुसार जब श्री बालकृष्णजी के अनन्तर उनके बड़े लालजी श्री द्वारिकेशजी श्री द्वारिकाधीशजी के घर के टिकैत भये, और श्री यदुनाथजी के बड़े लालजी श्री मधुसूदनजी स्वतन्त्रभये तब आपस में इन भाईन ने सलाह करी कि दादाजी काकाजी के आगे तो घर की एकता निभ गई, और हमारे तुम्हारे भी श्री की कृपा सूँ यावज्जीवन निभेगी। परन्तु आगे समय काल बहुत कठिन आवेगी, तासूँ हमारे तुम्हारे ही समाने जूदो व्यवहार होय जानो चाहिये’। इसी क्रम में आगे श्रीगोकुलनाथजी की आज्ञा ‘महाराजा के वंश के जब तुम्हारे घर सूँ न्यारे होयॅं तब श्री ठाकुरजी इनकूँ पधराय दीजो’। इससे स्पष्ट होता है कि श्रीगुसांईजी के समय षष्ठ गृह का पृथक्करण नहीं हुआ था।

षष्ठ लालजी श्रीयदुनाथजी के वंश में श्रीगिरिधरजी महाराज शुद्धाद्वैतमार्तण्ड’ का प्राकट्य वि0 सं0 1847 में हुआ। आपश्री साक्षात् षष्ठ लालजी श्रीयदुनाथजी के अवतार स्वरूप थे। इन्हीं के समकालीन तिलकायित श्रीदाऊजी महाराज द्वितीय का भी प्रा0 वि0 सं0 1853 में हुआ। आपश्री साक्षात् श्रीगुसांईजी के अवतार स्वरूप थे। श्रीगुसांईजी के समय जो बॅंटवारे का कार्य (षष्ठ लालजी श्रीयदुनाथजी द्वारा ‘श्रीबालकृष्णलाल’ प्रभु को अपने भाग के रूप में स्वीकार नहीं किये जाने पर) अवशिष्ट रहा गया था उसी अपूर्ण बॅंटवारे को पूर्ण करने के लिये ही इन दोनों ( श्रीगुसांईजी एवं श्रीयदुनाथजी) स्वरूपों का पुनः प्राकट्य (श्रीदाऊजीमहाराज ति0 एवं श्रीगिरिधरजी महाराज काशी के रूप में) हुआ और वही लीला यहाँ आकर इतने सालों बाद पूर्ण हुई। श्रीदाऊजी महाराज तिलकायित ने अत्यन्त कृपापूर्वक श्रीगिरिधरजी महाराज काशी वालों को श्रीजी के पास विराजमान स्वरूप श्रीमुकुन्दरायजी को पधराकर षष्ठ गृह के सम्पूर्ण (महाराजजी के आड़ी के हटड़ी की आरती पालकी) अधिकार प्रदान किये ।तब से आजतक षष्ठगृह काशी का स्थान प्रधान पीठ नाथद्वारा में सुरक्षित है। इसी प्राचीन बड़ों की परम्परा का निर्वाह करते हुए वि0 सं0 2023 में मि0 श्रा0 शु0 9 के दिन तत्कालीन विराजमान तिलकायित श्रीगोविन्दलालजी महाराज ने ‘सप्त स्वरूपोत्सव’ किया जिसमें षष्ठ निधि श्रीमुकुन्दरायजी ने ही श्रीजी के पास विराजकर षष्ठगृह स्थान को सुशोभित किया था। उस वक्त नि0 ली0 षष्ठपीठाधीश्वर गो0 श्रीमुरलीधरलालजी महाराज विराजमान थे। आपश्री के ही नेतृत्व में षष्ठनिधि श्रीमुकुन्दरायजी श्रीजीद्वार पधारे थे।

‘‘मुखमस्तीति वक्तव्यं दशहस्ता हरीतकी’’ इस उक्ति उक्तन्याय से कोई कुछ भी कह सकता है। परन्तु वस्तुतः सूरत गृह में विराजमान श्रीबालकृष्णलालजी तृतीय निधि श्रीद्वारिकाधीशजी के गोद के स्वरूप हैं। इस सत्य को कोई भी नहीं नकार सकता। जैसे अहमदाबाद में विराजमान श्रीनटवरलाल प्रभु प्रथम निधिस्वरूप श्रीमथुराधीशजी के गोद के स्वरूप हैं। वो चाहे कहीं भी किसी पर भी विराजे परन्तु श्रीमथुराधीशजी के गोद के स्वरूप ही कहे जावेंगे। इसी तरह श्रीबालकृष्णलालजी भी चाहे कहीं भी विराजे वो श्रीद्वारिकाधीशजी के गोद के स्वरूप ही कहे जावेंगे। सूरत गृह वस्तृतः तृतीय गृह का उपगृह है। उसका षष्ठ गृह से कोई भी सम्बन्ध नहीं है। सप्त गृहों का जो प्रकार है वह श्रीगुसांईजी के बालकों के वंश परम्परा से है। गृह श्रीगुसांईजी के पुत्रों से बने हैं श्रीठाकुरजी से नहीं। इसी तरह श्रीठाकुरजी में भी प्रथम द्वितीय का कम बालकों से हैं न की ठाकुरजी से। अतः वंश परम्परा सम्बन्ध से जो स्वरूप जहाँ पधारे हैं वे उस गृह के स्वरूप हुए हैं सूरत में विराजमान श्रीबालकृष्णजी दशदिगन्त विजयी श्रीपुरुषोत्तमजी के ठाकुरजी है और आपश्री तृतीय गृह के बालक हैं श्रीमहाप्रभुजी से यदि हम चले तो श्रीपुरुषोत्तमजी का छठ्ठी पीढ़ी में प्राकट्य है जैसे-

श्रीमहाप्रभुजी (मूल पुरुष)

 

श्रीगुसांईजी

 

तृतीय लालजी श्रीबालकृष्णजी

 

श्रीपीताम्बरजी (तृतीय लालजी के चतुर्थ लालजी)

 

(सूरतगृह) श्रीश्यामलजी                                                                                   श्रीयदुपतिजी

 

श्रीव्रजरायजी                 श्रीव्रजपालजी                                                    श्रीपीताम्बरजी              श्रीलालजी

 

श्रीपुरुषोत्तमजी            श्रीव्रजरायजी                                                     श्रीपुरुषोत्तमजी (दशदिगन्त विजयी)

(दशदिगन्तविजयी) (सूरतगृह से गोद आये)                    गोद गये

 

उपर्युक्त वंश वृक्ष के अनुसार श्यामलजी के सुत व्रजरायजी ने बलपूर्वक तृतीय निधि स्वरूप श्रीद्वारिकाधीशजी की गोद से श्रीबालकृष्ण प्रभु को पधराकर सूरत ले गये औरवहाँ पर मन्दिर की स्थापना कर श्री को पधराया और अपने पिता के नाम पर उस मन्दिर का नाम ‘श्यामलालजी नी हवेली’ रखा। आज भी उसे गुजराती भाषा में ‘शामड़ाजीनी हवेली’ कहते हैं। इससे अत्यन्त स्पष्ट हो जाता है कि सूरत का गृह एवं उसमें विराजमान स्वरूप दोनों तृतीय गृह के अन्तर्गत हैं इनका षष्ठ गृह से कोई भी सम्बन्ध नहीं है।

‘कांकरोली का इतिहास’ के अनुसार चतुर्थलालजी श्रीगोकुलनाथजी ने षष्ठलालजी श्रीयदुनाथजी के बड़े लालजी श्री मधुसूदनजी के माथे पघराया।

।। कछूक समय बाद सेवा करवे के ताईं श्रीगोकुलेशजी ने श्रीमधुसूदनजी के माथे श्रीकल्याणरायजी ठाकुरजी पघराय दिये, सो हाल शेरगढ़ (कोटा जिला) में विराजें हैं।।

‘(सम्प्रति कछूक वर्षन वे श्रीकल्याणरायजी बडौदा में विराजत है)’ (प्रथम भाग-उल्लास तेरहवाँ-पृष्ठ सं0 52)

आपश्री के वैसे तो कुछ ग्रन्थ एवं रचनाएँ कही जाती हैं परन्तु प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘‘श्रीवल्लभ दिग्विजय’’ है। वि0 सं0 1658 इसका रचना काल माना जाता है। कहते हैं कि इस ग्रन्थ का प्रारम्भ प्रयाग संगम के निकट स्थित अलर्कपुर (अड़ैल) में हुआ था एवं समापन नर्मदा नदी के तट पर हुआ था। वैसे तो आपश्री के वंश में कई विद्वान बालक हुए हैं परन्तु यहाँ पर जो अत्यन्त प्रसिद्ध हुए उन्हीं का नामोल्लेख करते हैं- (1) श्रीपुरुषोत्तमजी ‘ख्यालवाले’ के नाम से आपश्री प्रसिद्ध हुए। आप षष्ठ गृह/2 में श्रीरामचन्द्रजी से पाँचवी पीढ़ी में हुए। आपश्री का प्रा0 वि0 सं0 1805 मि0 माघ कृ0 2 में हुआ। आपश्री ने व्रज भाषामें कई कीर्तन पदों की रचना की है। आपश्री ने मुगल सम्राट औरंगजेब द्वारा उच्छिन्न व्रज चौरासी कोस की यात्रा’ परम्परा को पुनः प्रवर्तित किया था। (2) श्रीगिरिधरजी महाराज शुद्धाद्वैतमार्तंड’ काशीवाले नाम से प्रसिद्ध हुए। आपश्री का प्रा0 वि0 सं0 1847 मि0 पौ0 कृ0 3 गुरुवार के दिन है। आपश्री के पिता श्रीगोपाली (प्रा0 वि0 सं0 1810) षष्ठ गृह/2 से षष्ठ गृह/3 में गोद पधारे। आपश्री प्रकाण्ड विद्वान् थे। आपश्री ने कई ग्रन्थों की रचना किया जिनमें मुख्य ये हैं- (1) शुद्धाद्वैत मार्तंड, (2) श्रीमद्भागवत की बालप्रबोधिनी टीका, (3) अणुभाष्य त्रिसूत्री टीका, (4) विद्धन्मण्डन पर हरितोषिणी टीका इत्यादि कई ग्रन्थ हैं। वि0 सं0 1660 के लगभग आपश्री ने श्रीमद्गोकुल में सदेह श्रीयमुनाजी में लीला प्रवेश किया। आपश्री का एकमात्र प्राकट्य स्थल (बैठक) अड़ैल में है।