श्रीगुसांईजी के चतुर्थ लालजी श्रीगोकुलनाथजी

श्रीगोकुलनाथजी का प्राकट्य विक्रम संवत 1608 मि0मार्ग0षु0 7 शुक्रवार को देवरख – अड़ैल स्थित श्रीमहाप्रभुजी के निजगृह में हुआ। श्रीगोकुलनाथजी के प्राकट्य के समय श्रीगुसांईजी जतीपुरा में विराजते थे। श्रीगोकुलनाथजी का उपनाम श्रीवल्लभ है। श्रीगोकुलनाथजी का यज्ञोपवीत वि0सं0 1615 मि0 चैत्र षु0 6 को हुआ। कुछ लोग विक्रम सवंत 1616 गंगा दशहरा को गोकुल में हुआ मानते हैं। श्रीगोकुलनाथजी को विद्याध्ययन कर्णाटक प्रदेश के धुरंधर वेदज्ञ श्रीनारायणभट्टजी ने करवाया। श्रीगोकुलनाथजी का विवाह वि0 सं0 1624 में आषाढ़ कृ0 2 गुरुवार को हुआ। श्रीगोकुलनाथजी की बहूजी वेणाभट्ट की कन्या अ0 सौ0 पार्वतीजी हुई। श्रीगोकुलनाथ के कुल 4- तीन पुत्र एवं 1 कन्या हुई।

(1) श्रीगोपालजी, प्रा0 वि0 सं0 1642, मि0 आश्विन शु0 14

(2) श्रीविठ्ठलरायजी, प्रा0 वि0 सं0 1645, मि0 फाल्गुन कृ0 13

(3) श्रीव्रजोत्सवजी, प्रा0 वि0 सं0 1640, मि0 कार्तिक कृ0 7

तथा कन्या श्रीरोहिणीजी हुई। कुछ लोग तो तीन कन्याएँ भी मानते हैं।

आपश्री का शास्रार्थ चिद्रूप संन्यासी के साथ हुआ था और इसमें श्रीगोकुलनाथजी की विजय हुई थी। श्रीगोकुलनाथजी ने माला तिलक की रक्षा की थी।

तत्कालीन मुगल सम्राट जहाँगीर ने वि0 संव 1674 में एक आदेश जारी किया तदनुसार मालाकंठी धारण करना निषिद्ध हो गया। उस वक्त व्रज के मुसलमान हाकिमों ने माला तिलक धारण करने वाले वैष्णवों के विरूद्ध कठोर अभियान छेड़ दिया। इससे परेशान होकर कई लोग व्रज छोड़ कर पलायन कर गये। श्रीगोकुलनाथजी ने उस समय इस विपत्ति का धैर्यपूर्वक सामना किया परन्तु आखिर उनको भी व्रज छोड़कर जाना पड़ा। तब आपश्री ने राजा के पास इसकी फरियाद करने का निश्चय  किया। इस वक्त सम्राट जहाँगीर काश्मीर तक की लम्बी यात्रा करके वहाँ पधारे और सम्राट जहाँगीर के दरबार में उपस्थित होकर माला तिलक का शास्त्रीय पक्ष सप्रमाण प्रस्तुत किया और सम्राट अकबर की धार्मिक सहिष्णुता का स्मरण भी दिलाया। इससे प्रसन्न होकर जहाँगीर ने अपना वह आदेश वि0 सं0 1677 में वापिस ले लिया। यह सब आपश्री के ही प्रयास से सम्भव हुआ अतः आपश्री को माला तिलक का रक्षक कहा जाता है।

काश्मीर में आपश्री की बैठक है परन्तु वह अप्रकट है। कहते हैं कि पामपुर के निकट ही कहीं पर आपश्री विराजे थे। श्रीगोकुलनाथजी अपने परिवार एवं परिकरों के साथ वि0सं0 1676 मि0 मार्ग0 शु0 6 सोमवार को सोरो पधारे और फिर काश्मीर होते हुए राजकीय आदेश को खारिज कराके परिवार सहित वि0सं0 1677 मि0 चैत्र कृ0 10 बुधवार को गोकुल पधारे।

जहाँगीर तो धार्मिक भावना का था फिर भी उसने ऐसा आदेश किया क्योंकि इस विषय में इतिहासकारों में मतभेद है। कुछ इसे शाहजहाँ काल की घटना भी मानते हैं कुछ ऐसा भी मानते हे कि जहाँगीर के काश्मीर जाने पर कुछ निचले स्तर के हाकिमों ने यह दुष्टता की थी जिसे जहाँगीर से कहकर श्रीगोकुलनाथजी ने समाप्त करवाया। कुछ इतिहासज्ञ इस आदेश का कारण ‘चिद्रूप’ संन्यासी को मानते है। उसी ने शास्रार्थ पराजय से रूष्ट होकर यह आदेश करवाया था। खैर जो भी हो परन्तु यह प्रसंग अवश्य हुआ था यह निश्चित है।

आपश्री के बाँट के स्वरूप चतुर्थ निधि स्वरूप श्रीगोकुलनाथजी हैं और वो श्रीमद् गोकुल में विराजमान हैं। आपश्री ने कुल 32 ग्रन्थों की रचना किया जिनमें कुछ मुख्य हैं- (1) श्रीसर्वोत्तमस्तोत्रटीका (2) गायत्री भाष्य विवरण (3) श्रीसुबोधिनीजी पर टीका (4) ‘वेणुगीत’ पर स्वतन्त्र टीका (5) दंडी मद मर्दन (6) वल्लभाष्टक पर टीका (7) भाव रसायन (8) कुछ षोडश ग्रन्थों पर टीका (9) गुप्त रस इत्यादि संस्कृत के प्रमुख हैं-(1) चौरासी वैष्णवन की वार्ता , (2) दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता, (3) श्रीमहाप्रभुजी की प्राकट्य वार्ता , (4) घरूवार्ता, निजवार्ता , (5) बैठक चरित्र, (6) भावसिन्धु इत्यादि इसमें वार्ता  साहित्य के कारण व्रजभाषा गद्य साहित्य की उस काल में अभूतपूर्व उन्नति हुई।

आपश्री की कुल बैठकें 13 हैं। जो निम्नलिखित हैं-

(1) गोकुल में श्रीगोकुलनाथजी के मन्दिर में

(2) वृन्दावन में – बंषीवट पर। यहाँ पर आपश्री ने श्रीवल्लभाष्टक की टीका लिखी थी।

(3) राधाकुंड-कुंड पर

(4) गोवर्धन-जतीपुरा में श्रीगोकुलनाथजी के मन्दिर में

(5) चन्द्रसरोवर-यहाँ पर आपश्री ने सर्वोेत्तमस्तोत्र की टीका लिखी थी।

(6) कामवन-श्रीकुंड पर

(7) करहला-यहाँ पर आपश्री ने वेणुगीत पर प्रवचन किया था।

(8) रासकुंड (रासोली) पर छोंकर के वृक्ष के नीचे। यहाँ पर आपश्री ने भ्रमरगीत पर टीका लिखी थी।

(9) सोरमजी की बैठक-यहाँ पर आपश्री ने कृपा कटाक्ष द्वारा अनेक जीवों की उद्धार किया।

(10) अड़ैल की बैठक-प्रथम श्रीभागवत सप्ताह आपश्री ने यहीं किया।

(11) काश्मीर की बैठक-जहाँ से आपश्री ने माला तिलक की रक्षा करी।

(12) गोधरा की बैठक-यहाँ पर आपश्री ने श्रीगुसांईजी को तपेली आरोगाया।

(13) असारवा की बैठक-चाचाजी के विनती से आपश्री यहाँ पधारे।

श्रीगोकुलनाथजी आपश्री 89 वर्ष 2 मास और 17 दिन भूतल पर विराजे। आपश्री ने वि0 सं0 1697 मि0 फा0 कृ0 9 को श्रीमद् गोकुल में लीला प्रवेश किया। वैसे तो भूतल पर सर्वत्र आपश्री की सृष्टि विस्तृत है परन्तु गुजरात के भड़ौच, पंचमहाल में एवं उत्तर प्रदेश के काशी में विशेष विद्यमान है। आपश्री के सेवक तो अनेक थे परन्तु उनमें 78 सेवक अधिक प्रसिद्ध हैं। इनमें भड़ौच के मोहनभाई का नाम विशेष उल्लेखनीय है।