श्रीगुसांईजी के तृतीय लालजी श्रीबालकृष्णजी
श्रीविठ्ठलनाथजी के तृतीय लालजी श्रीबालकृष्णजी का प्राकट्य वि0 सं0 1606 मि0 आश्विन वदी 13,बुधवार, अड़ैल में हुआ। श्रीगुसांईजी ने बाँटे में आपश्री स्वरूप पधराये थे। श्रीबालकृष्णजी का उपनयन वि0 सं0 1613 में श्रीगोकुल में हुआ। कुछ इतिहासज्ञ सं0 1614 प्रयाग के पास अड़ैल में भी मानते हैं। आपका विवाह वि0 सं0 1623 के लगभग गोकुल में। श्रीबालकृष्णजी के बहूजी का नाम श्रीकमलाजी है। आपश्री के कुल 7 सन्तानें थी- 6 पुत्र तथा 1 पुत्री। जिनके नाम निम्नलिखित हैं।
(1) श्रीद्वारिकेशजी, प्रा0 वि0 सं0 1629 मि0 वैशाख शु0 14
(2) श्रीव्रजनाथजी, प्रा0 वि0 सं0 1632 मि0 कार्तिक शु0 9
(3) श्रीव्रजनाथजी, प्रा0 वि0 सं0 1636 मि0 चैत्र शु0 9
(4) श्रीपीताम्बरजी प्रा0 वि0 सं0 1636 मि0 चैत्र कृ0 9
(5) श्रीव्रजालंकारजी, प्रा0 वि0 सं0 1641 मि0 भाद्रपद शु0 11
(6) श्रीपुरुषोत्तमजी, प्रा0 वि0 सं0 1636 मि0 ज्येष्ठ शु0 6
तथा एक कन्या श्रीगोपीबेटीजी (देवकाजी) हुईं।
वैसे तो समस्त भाईयों में परस्पर स्नेह था परन्तु षष्ठ लालजी श्रीयदुनाथजी के साथ आपका अतिशय गाढ़ प्रेम होने के कारण ये दोनों भाई साथ-साथ ही खाते-पीते खेलते और भगवत्सेवा करते। यही क्रम आप उभय भ्राताओं का लगभग आजीवन रहा। आपश्री ने प्रायः वेदादिशास्त्रों का अध्ययन अपने पितृचरण से ही किया। वैसे तो आपश्री के कई ग्रन्थ हैं परन्तु जिनका मुख्यरूप् से नामोल्लेख प्राप्त होता है वे निम्न हैं-
(1) स्वप्रदृष्ट स्वामिनी स्तोत्र, (2) गुप्त स्वामिनी स्तोत्र, (3) भक्तिवार्धिनी स्तोत्र विवृत्ति, (4) प्रसादवागीश भाष्य विवरण, (5) सर्वोत्तम स्तोत्र विवरण। कहते हैं यह ग्रन्थ 6000 श्लोकों में निबद्ध रहा।
श्रीवालकृष्णजी को बाँटे में श्रीद्वारिकाधीशजी का स्वरूप तो प्राप्त हुआ ही था परन्तु विशेष रूप से घटी घटना:- वि0 सं0 1635 एवं 1640 के मध्य श्रीगुसांईजी ने अपनी सम्पत्ति एवं अपने स्वरूपों का विभाग यथायथ अपने सातों पुत्रों में किया। उक्त विभागके समय एक विशेष घटना यह घटी कि षष्ठ लालजी श्रीयदुनाथजी ने उन स्वरूप् को लेना स्वीकार नहीं किया। फलतः तृतीय लालजी श्रीबालकृष्णजी ने श्रीगुसांईजी से वह श्रीबालकृष्णजी का स्वरूप् अपने लिये मांग लिया और श्रीगुसांईजी ने उन्हें पधरा भी दिया। उन स्वरूप को श्रीद्वारिकाधीशजी की गोद में पधराया गया अर्थात् वह गोद का स्वरूप भया।
षष्ठ लालजी श्रीयदुनाथजी का अपने बड़े भ्राता तृतीय लालजी श्रीबालकृष्णजी से अतिशय सौहार्द होने के कारण आप उन्हीं के साथ विराजकर श्रीद्वारिकाधीशजी की सेवा किया करते थें इस प्रकारतृतीय लालजी श्रीबालकृष्णजी को एक और स्वरूप श्रीबालकृष्णजी का प्राप्त हुआ। आपश्री का लीला प्रवेश वि0 सं0 1650 में हुआ। कुछ इतिहासकार वि0 सं0 1645 भी कहते हैं। आपश्री की एक बैठक गोकुल में श्रीद्धारिकाधीशजी के मंदिर में है। श्रीपुरुषोत्तमजी महाराज ‘दशदिगन्त विजयी’ तृतीय गृह के उपगृह की परम्परा में हैं। श्रीपुरुषोत्तमजी का प्राकट्य वि0 सं0 1724 मि0 भाद्रपद शु0 11 को हुआ। कुछ विद्वान् वि0 सं0 1714 भी मानते हैं।
आपश्री श्रीमहाप्रभुजी से छठ्ठी पीढ़ी में आते हैं। जिसका विवरण निम्नलिखितानुसार स्पष्ट हैं-
श्रीमहाप्रभुजी (मूलपुरुष)
श्रीगोपीनाथजी श्रीविठ्ठलनाथजी
तृतीय लालजी श्रीबालकृष्णजी (तृतीय गृह)
श्री पीताम्बरजी (चतुर्थ लालजी)
श्रीश्यामलजी श्रीयदुपतिजी
श्रीव्रजरायजी श्रीपीताम्बरजी
(प्रथम लालजी) (प्रथम लालजी)
श्रीपुरुषोत्तमजी श्रीपुरूषोत्तमजी
(दशदिगन्तजी गोद आए) (दशदिगन्त विजयी)
(गोद गए श्रीश्यामलजी के सुत श्रीव्रजरायजी के तृ0 गृह चतुर्थ उपगृह की परम्परा में)
इस प्रकार श्रीपुरूषोत्तमजी (दशदिगन्त विजयी) तृतीय गृह के चतुर्थ उपगृह की परम्परा में रहे। परन्तु गोद गये श्यामलजी के सुत श्रीव्रजरायजी के सूरत गृह में। ये व्रजरायजी भी तृतीय गृह के चतुर्थ उपगृह में ही हैं। अर्थात् श्रीगुसांईजी के तृतीय लालजी श्रीबालकृष्णजी के चतुर्थ पुत्र श्रीपीताम्बरजी के बड़े लालजी श्री श्यामलजी के पुत्र भी व्रजरायजी हैं और श्री पीताम्बरजी के द्वितीय पुत्र श्रीयदुपतिजी के प्रथम पुत्र श्रीपीताम्बरजी (द्वितीय) के पुत्र श्रीपुरूषोत्तमजी (लेख वाले) रहे जो कि छोटे भाई से बड़े भाई के घर में गोद गए। कहने का तात्पर्य यही कि सूरत गृह तृतीय गृह के चतुर्थ उपगृह में ही आता है। श्रीपुरूषोत्तमजी ने ब्रह्मसम्बन्ध दीक्षा श्रीकृष्णचन्द्रजी (प्रा.वि.सं. 1656) से लिया। श्रीकृष्णचन्द्रजी, तृतीय लालजी श्रीबालकृष्णजी के द्वितीय लालजी के लालजी हैं। श्रीपुरूषोत्तमजी ने अल्पायु में सूरत में आये एक संन्यासी से शास्रार्थ हुआ जिसमें वह संन्यासी पराजित हुआ। आपश्री ने सम्पूर्ण भारतवर्ष की यात्रा की एवं प्रत्येक स्थान पर विविध सम्प्रदाय के आचार्यों एवं विद्व्वानों को शास्रार्थ में पराजित किया। कहते हैं कि जब आप यात्रा पर पधारते थे तो कई (22 गाड़े) गाड़े पुस्तकों के भरकर आपके साथ चलते थे। इसलिए आपश्री को ‘दशदिगन्त विजयी’ की उपाधि प्राप्त हुई।
श्रीपुरूषोत्तमजी के छोटे बड़े कुल मिलाकर नौ लक्ष ग्रन्थ हैं। जिनमें से कई ग्रन्थ फिलहाल अनुपलब्ध भी हैं। श्रीपुरूषोत्तमजी के मुख्य-मुख्य ग्रन्थों के नाम (1) भाष्य प्रकाश (2) विद्धन्मण्डन पर सुवर्ण सूत्र (3) निबन्ध प्रकाश का आवरण भंग (4) श्रीसुबोधिनी पर प्रकाश (5) षोडश ग्रन्थों पर टीकाएँ आदि।
इसी तरह आपश्री के स्वतन्त्र ग्रन्थों में (1) अवतारवादावली (2) प्रस्थान रत्नाकर (3) उत्सव प्रतान आदि प्रमुख हैं। आपश्री 70 वर्ष से अधिक ही भूतल पर विराजे। निश्चित समय प्राप्त नहीं है तथापि लगभग वि0 सं0 1820 के बाद सम्भवतः गोकुल में आपश्री ने लीला प्रवेश किया। श्रीपुरुषोत्तमजी एक पुत्र श्रीयदुपतिजी। कुछ लोग दो पुत्र होना कहते हैं। परन्तु आगे आपश्री का वंश गुप्त हो गया। अतः पुनः तृ0 गृ0- के पंचम उपगृह से श्रीपुरुषोत्तमजी (तृ0 ला0 श्रीबालकृष्णजी के प्रपौत्र श्रीमुरलीधर जी के पुत्र) के नाम वि0 सं0 1789 मि0 द्वितीय आषाढ़ सु0 10 को ‘बक्षीशनामा’ करके गोद लिया।
श्रीपुरुषोत्तमजी ‘दशदिगन्त विजयी’ का पुष्टिमार्ग में अत्यन्त महत्व का स्थान है। आपश्री उद्भट विद्वान् और समर्थ व्याख्याता थे। आपश्री का पाण्डित्य और ज्ञान अगाध था। आपश्री सदैव ग्रन्थ रचना एवं शास्त्र चर्चा में तल्लीन रहते थे। श्रीपुरुषोत्तमजी के समकालीन पंडित आपश्री के समय में भारतवर्ष के प्राकण्ड विद्वान् जो न्याय, मीमांसा, व्याकरण, वेदान्त, ज्योतिष आदि शास्त्रों के विशेषज्ञ थे उनसे आपश्री के शास्रार्थ एवं चर्चाएं बराबर होती रहती थीं।
उन विद्वानों के नाम (1) श्रीपुर्णेन्दु सरस्वती यति (2) श्रीभट्ट नीलकंठ (3) श्रीगोविन्द भट्टाचार्य (4) श्रीपंडितराज जगन्नाथ (5) श्रीअप्पय दीक्षित (6) श्रीकविमंडन बालकृष्ण्उ भट्ट (7) श्रीब्रहा्रेन्द्र सरस्वती यति (8) श्रीविरेश्वर शुक्ल (9) श्रीचिंतामणी भट्ट द्रोण (10) श्रीखंडदेव (11) श्रीपौराणिक गदाधर (12) श्रीभास्कर ज्योर्तिविद (13) श्रीलक्ष्मण पंडित वैद्य (14) श्रीअनन्त भट्ट मीमांसक इत्यदि ये सब विद्वान् श्रीवेणीदत्त के समकालीन है।
पं0 वेणीदत्त काशी के प्रकाण्ड विद्वान् थे। ये श्रीपुरुषोत्तमजी से अत्यन्त प्रभावित थे एवं आप दोनों का परस्पर स्नेह भी था। श्रीपुरुषोत्तमजी का भारतवर्ष के पंडितों में क्या स्थान है? आपश्री की तुलना भारतवर्ष के अद्वितीय प्रकाण्ड विद्वान् हेमचन्द्र द्रोण सायणमाधव के साथ होती थी। आपश्री के विवाह के सम्बन्ध में विशेष जानकारी प्राप्त नहीं है। परन्तु आपश्री के यहाँ दो पुत्रों का जन्म हुआ था। वे भी सम्भवतः शीघ्र ही लीला में पधारे थे। आपश्री के दो मुख्य विरोधी पंडित थे- (1) पंडित भास्करराय शाक्त और (2) श्री अप्पय दीक्षित शैव