श्रीगुसांईजी के द्वितीय लालजी श्रीगोविन्दरायजी
वि0 सं0 1599 मि0 मार्गशीर्ष कृ0 8 गुरुवार को देवरख, अड़ैल (प्रयाग) में, श्रीवल्लभाचार्यजी की निजगृह की बैठक में हुआ।
श्रीगोविन्दरायजी का उपनयन वि0 सं0 1608 के चैत्र मास में श्रीगोकुल में हुआ। आपश्री का विवाह वि0 सं0 1615 के लगभग गोकुल में हुआ। आपके बहूजी का नाम श्रीराणी बहूजी है। आपश्री के चार पुत्र एवं दो कन्याएँ रहीं।
(1) श्रीकल्याणरायजी, प्रा0 वि0 सं0 1625 मि0 पौष कृ0 7
(2) श्रीगोकुलोत्सवजी, प्रा0 वि0 सं0 1635 मि0 ज्येष्ठ कृ0 4
(3) श्रीकृष्णरायजी, प्रा0 वि0 सं0 1637 मि0 पौष कृ0 5
(4) श्रीलक्ष्मीनृसिंहजी, प्रा0 वि0 सं0 1640 मि0 भाद्रपद कृ0 4
कन्याओं के नाम (1) श्रीरुक्मिणीजी (2) श्रीरामकुंवरजी
आपश्री के द्वारा रचित केवल ‘श्रीविट्ठलेशाष्टक’ ग्रन्थ का उल्लेख प्राप्त होता है। आपश्री को अपने भाग में श्रीगुसांईजी से श्रीविठ्ठलनाथजी का स्वरूप प्राप्त हुआ था। जो आजकल नाथद्वारा में विराजमान है।
श्रीगोविन्दरायजी के ज्येष्ठ पुत्र का नामकरण वार्ता साहित्य के अनुसार जब श्रीगोविन्दरायजी के ज्येष्ठ पुत्र का जन्म हुआ तब श्रीगुसांईजी श्रीनाथजी को श्रंगृार धरा रहे थे। श्रीजी की सेवा में विराजमान होने से किसी ने श्रीगुसांईजी को नहीं बताया। तब स्वयं श्रीनाथजी ने ही श्रीगुसांईजी को आज्ञा किया कि ‘‘गोविन्द के कल्याण भयो है’’। इस तरह नामकरणपूर्वक बधाई समाचार दिया तो श्रीगुसांईजी ने तुरन्त अपने श्रीहस्त के कड़े उतारकर श्रीनाथजी को बधाई स्वरूप् पधराये और फिर आपश्री तुरन्त सेवा से बाहर पधारे।
श्रीकल्याणरायजी का प्राकट्य वि0 सं0 1625 मि0 पौष कृ0 7 के दिन हुआ। कुछ इतिहासज्ञ वि0 सं0 1633 भी मानते हैं। श्रीकल्याणरायजी ने अति बाल्यकाल में ‘हों व्रजमाँगनो व्रज तज अनत न जे हों’ इस पद की रचना किया। कारण, एक समय श्रीगुसांईजी के काकाजी केशवपुरीजी श्रीगोकुल आये और उन्होंने श्रीगुसांईजी से कहा कि ‘तुम्हारे प्रभु कृपा से सात पुत्र हैं उनमें से एक पुत्र मुझे दीजिये जिससे वह मेंरे आश्रम की देखभाल करे’। तब सातों पुत्रों में से कोई भी जाने को तैयार नहीं हुए तब अल्प वय होने से आपश्री ने अपने पौत्र श्रीकल्याणरायजी को देने का विचार किया तब कल्याणरायजी समझ गये और उन्होंने दोनों हस्त जोड़कर विनती किया वही यह पद है। तब श्रीगुसांईजी के नेत्रों में हर्षाश्रु आ गये और आपश्री ने उन्हें अपने काकाजी को नहीं सौंपा।
श्रीगोविन्दरायजी एवं श्रीकल्याणरायजी की एक-एक बैठक गोकुल में श्री विठ्ठलनाथजी के मंदिर में एक साथ हैं। आपके वंश में सर्वाधिक प्रसिद्ध बालक श्रीहरिरायचरण हुये। आपश्री द्वितीय लालजी श्रीगाविन्दरायजी के पौत्र है, अर्थात् श्रीकल्याणरायजी के पुत्र। श्रीहरिरायजी का प्राकट्य वि0 सं0 1647 मि0 आश्विन कृष्णा-5 को श्रीमद्गोकुल में हुआ। श्रीहरिरायजी श्रीमहाप्रभुजी से पाँचवी पीढ़ी में आते हैं-
(1) श्रीमहाप्रभुजी (2) श्रीगुसांईजी (3) श्रीगोविन्दरायजी (4) श्रीकल्याणरायजी (5) श्रीहरिरायजी
श्रीहरिरायजी के कनिष्ठ भ्राता के नाम श्रीगोपेश्वरजी एवं श्रीविट्ठलेशजी।
गोपेश्वरजी का जन्म वि0 सं0 1649 मि0 ज्येष्ठ शु0 12 में श्रीहरिरायजी का यज्ञोपवीत 8 वर्ष की आयु में श्रीगोकुल में ही श्रीगुसांईजी के बड़े पुत्र श्रीगिरिधरजी के संरक्षकत्व में प्राचीन कुल मर्यादानुसार सम्पन्न हुआ।
श्रीहरिरायजी को ब्रह्मसम्बन्ध मन्त्र दीक्षा चतुर्थ लालजी श्रीगोकुलनाथजी ने दिया। वैसे तो उस समय श्रीगुसांईजी के परिवार में सबसे बड़े श्रीगिरधरजी विराजते रहे और बड़े होने के कारण उन्हीं को दीक्षा देने का अधिकार रहा परन्तु उन्हीं की आज्ञा से श्रीगोकुलनाथजी ने ब्रह्मसम्बन्ध मन्त्र दीक्षा दिया।
श्रीहरिरायजी के विद्यागुरू अपने पित्चरण से शिक्षा प्राप्त किया परन्तु मुख्यतः श्रीगोकुलनाथजी के सत्संग एवं सुशिक्षण से ही आपश्री को सम्प्रदाय के मार्मिक सिद्धान्तों का ज्ञान प्राप्त हुआ।
श्रीहरिरायजी के जीवन काल की सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण घटना श्रीनाथजी का व्रज (श्रीगोवर्धन) से मेंवाड़ श्रीनाथद्वारा पधारना। यह घटना वि0 सं0 1726 (ई0 सन् 1669) मि0 आश्विन शु0 15 में हुई। जिस समय श्रीनाथजी मेंवाड़ पधारे उस वक्त भारतवर्ष का शासक मुगल सम्राट ‘औरंगजेब’ था।
आपश्री के जीवन की दूसरी महत्वपूर्ण घटना सप्तमलालजी श्रीघनश्यामजी के ठाकुरजी श्रीमदनमोहनजी जो चोरी में पधार गए थे, वे स्वरूप श्रीहरिरायचरण के समय सिंध की डोकरी के पास से जब प्राप्त हुए तब श्रीहरिरायचरण ने उनको पहचानकर कहा ‘‘हाँ, हमने अगाडी दर्शन करें हैं जो ये श्रीमदनमोहनलालजी है’’। तब उस डोकरी के घर से ठाकुरजी को पधराकर श्रीहरिरायचरण ने पंचामृत स्नान कराके श्री नवनीतप्रियाजी के मंदिर में पघराये। बाद में यह स्वरूप् पुनः सप्तम गृह में पधरा दिया गया।
आपश्री के छोटे बड़े सब मिलाकर तकरीबन 200 से भी अधिक ही ग्रन्थ होंगे। जो संख्या फिलहाल ज्ञात है तदनुसार 166 ग्रन्थों की रचना आपश्री ने संस्कृत भाषा में एवं 52 ग्रन्थों की रचना व्रजभाषा में किया है।
श्रीहरिरायजी की संस्कृत भाषा एवं व्रजभाषा से इतर भाषाओं में भी रचनाएँ हैं। पंजाबी, सिन्धी आदि भाषाओं पर भी आपश्री का समान अधिकार रहा। इन भाषाओं में आपश्री के पद प्राप्त होते हैं।
श्रीहरिरायजी के (1) शिक्षापत्र (2) कामाख्यदोषविवरण (3) पुष्टिमार्गलक्षणानि (4) स्वरूपनिर्णय एवं श्रीवल्लभाचार्य रचित षोडश ग्रन्थों पर टीकाएँ आदि कई ग्रन्थ हैं। श्रीहरिरायचरण ने स्वरचित पदों में अपनी ‘रसिक छाप’ रक्खा है। श्रीहरिरायजी ने शिक्षापत्र अपने लघुभ्राता श्रीगोपेश्वरजी के लिये लिखे और उनकी संख्या 41 है
श्रीगोपेश्वरजी ने उन शिक्षापत्रों में से प्रथम 4 पत्र पढ़े। अन्य समस्त पत्रों को गोखले में रखते रहे। जब आपश्री के बहूजी लीला कर गये तब आपश्री ने उन पत्रों को पढ़ा। श्रीहरिरायजी ने शिक्षापत्र संस्कृत भाषा में लिखें हैं। आपश्री 125 साल भूतल पर विराजे। श्रीहरिरायजी ने लीला प्रवेश वि0 सं0 1772 मेंवाड़ के खिमनौर गाँव में किया। जहाँ आपकी बैठक एवं छत्री भी बनी हुई है। आपश्री की बैठक कुल 7 हैं जो निम्नलिखित हैं-
(1) गोकुल (2) नाथद्वारा (3) जैसलमेंर (4) सावली (5) डाकोर (6) जम्बुसर (7) खिमनौर।
आपश्री के जीवन का प्राथमिक दीर्घकाल करीब 80 साल व्रज में व्यतीत हुआ। एवं बाद में श्रीनाथजी को व्रज से मेंवाड़ पधराकर फिर आप स्वयं भी वहीं विराजे। पिछला 45 साल मेंवाड़ में बीता। आपश्री के 4 पुत्र हुए। उनके नाम (1) श्रीगोविन्दजी (2) श्रीविठ्ठलरायजी (3) श्रीछोटाजी (4) श्रीगोराजी थे।
आपश्री के चारों बालकों का लीला प्रवेश शीघ्र ही हो जाने से तथा आपश्री के भ्राता गोपेश्वरजीका भी वंश नहीं चलने से द्वितीय गृह की मूल परम्परा यहीं पूर्ण हुई। अतः उसे आगे चलाने के लिये प्रथम गृह से श्रीगिरिधरजी को गोद लिया गया। श्रीगिरिधरजी प्रथम गृह के तिलकायित श्रीदामोदरजी (बड़े दाऊजी) के द्वितीय पुत्र थे। श्रीगिरिधरजी का जन्म वि0 सं0 1745 में हुआ। पुष्टिमार्ग में श्रीमहाप्रभुजी, श्रीगुसांईजी एवं श्रीगोकुलनाथजी के बाद श्रीहरिरायचरण का ही सर्वाधिक महत्व है। आपश्री को भी महाप्रभु कहकर सम्बोधित किया जाता है। आपश्री का साहित्यिक दृष्टि से अत्यन्त महत्व है। जन सामान्य के लिये आपश्री ने जो सहज एवं गम्भीर साहित्य उपलब्ध कराया वह बेजोड़ है।
व्रजभाषा में वैसे तो आपश्री ने कई कीर्तन पद आदि की रचना की हे परन्तु उनमें प्रमुख ‘बड़ी दानलीला’ के नाम से आपश्री का पद विशेष प्रसिद्ध है। इसमें भगवान् पुष्टि पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण की दानलीला का वर्णन सुन्दर सरस एवं साहित्यिक विलक्षणताओं से भरपूर होते हुए भी दार्शनिक गांभीर्य से ओतप्रोत ऐसी साक्षात् श्रुतिस्वरूपा आपश्री की यह पद रचना है।
श्रीहरिरायचरण के प्रमुख सेवक आपश्री के चार सेवक विशेष प्रसिद्ध हैं-श्रीविश्वनाथ भट्ट, श्रीहरिजीवनदासण् श्रीप्रेमजी एवं चौथी एक डोकरी।