श्रीगुसांईजी के प्रथम लालजी श्रीगिरिधरजी

श्रीगिरिधरजी का प्राकट्य वि0 सं0 1597 में देवरख, अडैल श्रीवल्लभाचार्यजी की निज गृह की बैठक में कार्तिक शु0 12 मंगलवार के दिन हुआ।

श्रीगिरिधरजी का उपनयन काशी में वि0 सं0 1605 चै0 शु0 5 को हुआ। आपश्री का विवाह वि0 सं0 1644 मार्गशीर्ष शु0 15 के लगभग गोकुल में हुआ। आपश्री के बहूजी का नाम श्रीभामिनीजी है।

श्रीगिरिधरजी के तीन पुत्र एवं तीन कन्याएँ हुई। जिनके नाम हैं-

(1) प्रथम पुत्र श्रीमुरलीधरजी, प्राकट्य वि0 सं0 1630 मि0 अश्विन शु0 10

(2) द्वितीय पुत्र श्रीदामोदरजी, प्राकट्य वि0 सं0 1632 मि0 श्रावण शु0 15

(3) तृतीय पुत्र श्रीगोपीनाथजी, प्राकट्य वि0 सं0 1634 मि0 पौष कृ0 4

इसी तरह आपश्री की पुत्रियों के नाम हैं-

(1) श्रीवेणी बेटीजी (2) श्रीमहालक्ष्मी बेटीजी

(3) श्रीसुभद्रा बेटीजी

श्रीगिरिधरजी के द्वितीय पुत्र श्रीदामोदरजी तिलकायित हुए। तृतीय लालजी श्रीगोपीनाथजी को श्रीमथुरेश प्रभु प्राप्त हुए एवं प्रथम गृहाधिपतित्व भी श्रीगिरिधरजी को प्राप्त हुआ।

श्रीगिरिधरजी के ज्येष्ठ पुत्र श्रीमुरलीधरजी को तिलकायित का पद नहीं मिला। कारण कि आपश्री युवा अवस्था में ही लीला में पधारे थे।

श्रीविट्ठलनाथजी (श्रीगुसाईंजी) के आशीर्वाद से श्रीगिरिधरजी का वंश सबसे ज्यादा फला-फूला। इसकी वार्ता इस प्रकार है-श्रीगुसांईजी के द्वितीय बहूजी भी जब जल्दी लीला में पधार गये तब सप्तम लालजी श्रीघनश्यामजी की अवस्था बहुत छोटी थीं। अतः श्रीगिरिधरजी के बहूजी श्रीभामिनीजी ने ही उनका पुत्रवत् पालन किया। इससे अति प्रसन्न होकर श्रीगुर्सांइंजी ने उन्हें आषीर्वाद दिया था कि ‘तुम्हारी कोख सदा हरीभरी रहेगी’

श्रीगिरिधरजी द्वारा रचित प्राचीन वार्ता  साहित्य के अनुसार श्रीगुसांईजी की आज्ञा से ‘विद्धन्मण्डन’ ग्रन्थ में पूर्वपक्ष आपश्री ने ही उपस्थापित किया था। इससे स्पष्ट होता है कि विद्धत्ता बेजोड़ थी। अन्य ग्रन्थों में आपके दो ग्रन्थ प्राप्त होते हैं (1) उत्सव निर्णय (2) गद्यमन्त्र टीका एवं श्रीगोवर्धनधरण श्रीनाथजी की स्तुति के केवल तीन श्लोक।

श्रीगिरिधरजी की कुल 5 बैठकें हैं (1) श्रीमदगोकुल में है। इसी स्थल पर विराजकर आपश्री ने श्रीगुसांईजी के सम्मुख उन्हीं की आज्ञा से ‘विद्धन्मण्डन’ ग्रन्थ में पूर्वपक्ष उपस्थापित किया था। (2) गोपालपुरा (जतीपुरा) में है जो श्रीमथुरेशजी के मन्दिर में स्थित है। (3) कामर में है। जो एक साधु के मन्दिर की गुफा में स्थित है। (4) नरी सेमरी-यहाँ पर आपश्री ने 6 मास तक अविच्छित्र विराजकर श्रीमद्भागवत की कथा करी थी। (5) कामवन-श्री कुण्ड पर। आपश्री ने श्रीमद्गोकुल में वि0 सं0 1660 में सदेह लीला प्रवेश किया। श्रीगुसांईजी के लीला प्रवेश करने के बाद आपश्री गद्दी पर विराजे। उस वक्त आपश्री की उम्र 45 वर्ष की थी।

सम्राट अकबर ने शाही फरमानों द्वारा (जो श्रीगुसांईजी के नाम थे) गोपालपुरा (जतीपुरा) तथा गोकुल के जमींदारी के अधिकार प्रदान किये थे एवं गौचारण के लिए विशाल भूमि उपलब्ध करायी थीं।