श्रीगोपाललालजी

भगवान श्रीकृष्ण ने पाण्डवों युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन को क्रमशः  श्रीकल्याणरायजी, श्रीमदनमोहनजी एवं गोपाल लालजी पधराया था, जिनकी सेवा उन्होने अपने जीवनकाल तक किया। तदनन्तर श्रीकृष्ण के लीला-विस्तार के पश्चात  पाण्डवों ने भी महाप्रस्थान किया तब भगवान श्रीकृष्ण के प्रपौत्र बज्रनाभजी को पधरा दिया। तत्पश्चात  श्रीवज्रनाभजी जब पाण्डवों के वंशजों एवं उनकी रानियों से मिलने हस्तिनापुर गये तो उन्होने पाण्डवों की रानियों का भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम देखकर श्रीगोपाल लालजी का स्वरूप पाण्डवों के महल में पधरा दिया। उस समय से पाण्डवों के वंशजों द्वारा श्रीगोपाल लालजी की सेवा बराबर चलती रही। हस्तिनापुर से जब पाण्डव वंशज उदयपुर गये तो वहाँ के राजमहल में श्रीगोपाल लालजी की सेवा उनकी वंशज लाडबाई धारबाई तक चलती रही। श्रीलाडबाई धारबाई काशी आयीं वहाँ पर श्रीगुसांईंजी की शिष्य हुई एवं श्रीगुसांईंजीने श्रीगोपाल लालजी को पाट बैठाया, तत्पश्चात  श्रीगोपाल लालजी की सेवा पुष्टिमार्गीय सेवा प्रणालिका के अनुसार प्रारम्भ हुई। श्रीलाडबाई धारबाई अपनी वृद्धावस्था में श्रीगोपाल लालजी को लेकर ब्रजभूमि में आ गयीं और वहीं यथाशक्ति सेवा करती रहीं। अत्यन्त अशक्त होने पर श्रीलाडबाई धारबाई ने श्रीगुसांईंजी  के प्रथम लालजी श्रीगिरिधरजी से विनती किया कि श्रीगुसांईंजी द्वारा पाट बैठाये ठाकुर श्रीगोपाल लालजी को आप अपने यहाँ पधरा लें, साथ ही मेंरे पास जो चार लाख मुद्रायें हैं वह भी आप स्वीकार कर लें। जिससे सेवा निष्कंटक रूप से चलती रहे। श्रीगिरिधरजी ने ठाकुरजी को पधराना तो स्वीकार कर लिया, लेकिन राजद्रव्य अरिष्ट  होने से स्वीकार करने से इनकार कर दिया, तत्पश्चात  लाडबाई धारबाई ने गौड़ीय सम्प्रदाय के आचार्य से स्वरूप स्वीकार करने के लिए विनती किया। यह बात जब चतुर्थ बालक श्रीगोकुलनाथजी को ज्ञात हुई तो उन्होने तत्काल वृन्दावन पधारकर दोनों वैष्णवों से सम्पर्क स्थापित किया और कहा कि हमारे पिताश्री द्वारा पाट बैठाये गये ठाकुर को हम गौड़ीय गोस्वामियों के यहाँ नहीं पधराने देंगे। तब लाडबाई धारबाई ने बड़े श्रीगिरिधरजी द्वारा स्वरूप स्वीकार करने की एवं मुद्राओ को अस्वीकार करने की वार्ता सब श्रीगोकुलनाथजी के सामने प्रस्तुत किया और उन्होने कहा कि मैं तो अपना अन्त समय समझकर आपकी शरण में आयी हूँ। इस पर श्रीगोकुलनाथजी ने द्रव्य सहित श्रीठाकुरजी को पधराकर ठाकुर को तो श्रीगोकुलेषप्रभु को निकट पधरा दिया जहाँ उनकी सेवा प्रारम्भ हुई एवं द्रव्य को दीवाल में चुनवा दिया। तेरह वर्षों तक श्रीगोपाल लालजी की सेवा श्रीगोकुलेषप्रभु के साथ चलती रही, तत्पश्चात श्रीयदुनाथजी लीला में पधारे। तब श्रीयदुनाथजी के तीनों बालको ने मिलकर श्रीगोकुलनाथजी से विनती किया कि हमारे पिता के हिस्से में कोई सेव्य स्वरूप प्राप्त नहीं हुए। इस पर श्रीगोकुलनाथजीने तीनों बालको को तीन स्वरूप पधरा दिया। जिसमें श्रीमधुसूदनजी को श्रीकल्याणरायजी, श्रीरामचन्द्रजी को श्रीमदनमोहनजी एवं श्रीजगन्नाथजी को श्रीगोपाल लालजी के स्वरूप पधरा दिया। श्रीगोपाल लालजी की सेवा श्रीजगन्नाथजी के वंशज श्रीजीवनजी (जन्म मि0 माघ शुक्ल पूर्णिमा वि0सं0 1775) एवं उनके पुत्र श्रीगोपालजी (जन्म मि0 माघ शुक्ल पूर्णिमा वि0सं0 1810) तक गोकुल में ही श्रीकल्याणरायजी के मन्दिर में चलती रही, जहाँ एक ही सिंहासन पर तीनों स्वरूप विराजते रहे। श्रीजगन्नाथजी के वंशज कालान्तर में श्रीगोपाल लालजी को पधराकर कामवन पधारे। वहाँ अनेक वर्षों तक सेवा चलती रही।

श्रीजगन्नाथजी ने पृष्ठ गृह की प्रथम शाखा से श्रीचिम्मनजी (जन्म मि0 आश्विन शुक्ल षष्ठी सं0 1680) को गोद लिया। श्रीचिमनजी को चार बालक (1) श्रीमाधवरायजी (जन्म मि0 भाद्रपद शुक्ल तृतीया सं0 1700) (2) श्रीगोपालजी (जन्म सं0 1702) (3) श्रीुपुरुषोत्तमजी (जन्म मि0 माघ कृष्ण चतुर्थी सं0 1703) एवं (4) श्रीकल्याणरायजी (जन्म मि0 भाद्रपद शुक्ल अष्टमी सं0 1704) हुए जिनमें प्रथम तीन बालको का वंश नहीं चला, चतुर्थ बालक श्रीकल्याणरायजी को तीन बालक क्रमशः  (1) श्रीगिरिधरजी (जन्म मि0 वैसाख शुक्ल प्रतिपदा सं0 1737) (2) श्रीबृजपतिजी (जन्म मि0 फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी सं0 1739) (3) श्रीलालजी (जन्म सं0 1742) प्रगट हुए। जिनमें द्वितीय एवं तृतीय बालको का वंश नहीं चला। प्रथम श्रीगिरिधरजी को चार बालक क्रमशः (1) श्रीजीवनजी (जन्म मि0 माघ शुक्ल पूर्णिमा सं0 1775) (2) श्रीबृजनाथजी (जन्म मि0 श्रावण शुक्ल चतुर्थी सं0 1777) (3) श्रीजगन्नाथजी (जन्म मि0 श्रावण कृष्ण पंचमी सं0 1781) (4) श्रीवेंकटेशजी (जन्म सं0 1784) हुए जिनमें द्वितीय लगायत चतुर्थ बालको का वंश नहीं चला। प्रथम श्रीजीवनजी महाराज ने षष्ठ गृह की प्रथम शाखा से श्रीगोपालजी (जन्म मि0 माघ शुक्ल पूर्णिमा सं0 1810) को गोद लिया। इन्हीं श्रीजीवनजी महाराज के समय कामवन में मेंवाती लोगो द्वारा लूटपाट की घटनाएं बहुत अधिक होने लगीं तो श्रीजीवनजी महाराज ने श्रीगोपाललालजी को विक्रम सं0 1787 में काशी में पधराया। सर्वप्रथम श्रीगोपाल लालजी मि0 भाद्रपद कृष्ण प्रतिपदा संवत् 1787 को श्रीशम्भूशाह हजारी के घर विराजे तत्पश्चात् श्रीजीवनजी महाराज ने मि0 भाद्रपद कृष्ण पंचमी को अपने गृह में पधराकर पाट बैठाया। इसके बाद श्रीगोपाल लालजी थोड़े-थोड़े समय नारायणदास पंसारी, शम्भूशाह मालदही एवं गंगादास शाह के घर बिराजकर पुनः श्रीजीवनजी की हवेली में विराजे। इसी समय नादिरश शाह द्वारा दिल्ली में लूटपाट व भीषण अत्याचार की घटनाओ को सुनकर थोड़े समय के लिए श्रीजीवनजी महाराज ने श्रीगोपाल लालजी को आजमगढ़ पधराया और वहाँ से लौटकर श्रीगोपाल लालजी शम्भूशाह मालदही के घर सुन्दरदास शाह के बाग में एवं बनवारीदास हजारी के घर विराजे। संवत् 1808 से सं0 1834 तक विभिन्न स्थानों पर विराजकर मि0 वैसाख शुक्ल तृतीया सं0 1834 अक्षय तृतीया के दिन श्रीगोपाल मन्दिर में पुनः विराजे जहाँ पर अद्यावधि विराजमान हैं। श्रीजीवनजी महाराज के नाम से ही काशी की यह हवेली श्रीजीवनजी की हवेली के नाम से विख्यात हुई एवं इनके दत्तक पुत्र श्रीगोपालजी महाराज के नाम से यह मन्दिर गोपाल मंदिर के नाम से विख्यात हुआ। श्रीगोपालजी महाराज के वंश में सं0 1847 को पौष कृष्ण तृतीया को शुभ घड़ी शुभ मुहूर्त में शुद्धाद्वैत मार्तण्ड श्रीगिरिधरजी महाराज का प्रागट्य हुआ। जिन्होंने अपनी विद्धता एवं सेवा परायणता तथा सम्प्रदाय विषयक अगाध जानकारी के बल पर सम्पूर्ण पुष्टि सम्प्रदाय में काशी के घर का नाम अग्रिम पंक्ति में प्रतिष्ठित किया। उनकी महत्ता के प्रतिपादन के लिए तत्कालीन ग्रंथों में भी साक्ष्य प्रभूत मात्रा में उपलब्ध हैं। इस सम्बन्ध में श्रीगिरिधरलालजी महाराज काँकरौली वाले के 120 वचनामृत सं0 30 से निम्नलिखित उद्धरण उल्लेखनीय है। अब के समय में काशी वारे श्रीगिरिधरजी सरीखे पंडित नहीं सुने हैं। वचनमृत सं0 95 में गिरिधरलालजी पुनः लिखते हैं कि श्रीगिरिधरजी महाराज काशी वालों की मानसी सेवा स्वतः सिद्ध थी। आपश्री ने निरन्तर 16 माह तक प्रतिदिन रात्रि के पिछले प्रहर से सूर्योदय तक कटिपर्यन्त जल में रहकर एक काँच हाथ में लेकर एक हाथ में माला लेकर गोपाल मंत्र का पुरश्चरण किया सो वह काँच ऐसा सिद्ध हुआ कि उसमें श्रीनाथजी के दर्शन समय-समय पर तथा ऋतु अनुसार जो भी मनोरथ होते थे, उन सभी मनोरथो के दर्शन होते थे। आपश्री अन्तरंग वैष्णवों को कृपा पूर्वक दर्शन कराया करते थे। श्रीगिरिधरजी महाराज के वचनामृत सं0 30 में यह भी लिखा है कि श्रीगिरिधरजी काशी वालों के सेवक श्रीमुकुन्ददास ने श्रीमद्भागवत की रस प्रबोधिनी टीका किया है। जो कि फिलहाल अन्वेषणीय है। वचनामृत सं0 46 से ज्ञात होता है कि श्रीगिरिधरजी महाराज ने नाथद्वारा में श्रीजी के तीन बार छप्पन भोग का मनोरथ कराया। जिसमें से एक मनोरथ में वचनामृतकर्ता श्रीगिरिधरजी स्वयं भी उपस्थित थे। वचनामृत सं0 95 में ही उल्लिखित है कि श्रीगिरिधरजी महाराज पुष्टिमार्ग के सूर्यरूप थे। सातों स्वरूपों को भेले करके उनकी छप्पन भोग कराने की बहुत इच्छा थी। लेकिन यह इच्छा पूर्ण न हो सकी एवं श्रीजीद्वार में ही आप श्री वि0सं0 1898 के लगभग लीला में प्रविष्ट हुए।

समस्त पूर्वांचल के प्रति हमारे श्रीगिरिधरजी महाराज की यह महान् देन है कि उन्होनेश्री श्रीनाथजी के निकट जो स्वरुप विराजते  थे उनमें से निधि स्वरुप श्रीमुकुन्दरायजी को अपने पाण्डित्य के परम प्रताप से नाथद्वारा के तत्कालीन तिलकायित श्रीदाऊजी महाराज की आज्ञा से प्राप्त किया एवं साथ ही साथ षष्ठगृहपीठ की मान्यता एवं श्रीजीद्वार में षष्ठगृह की श्रीयदुनाथजी की आड़ी की हटरी की आरती पालकी का भी अधिकार प्राप्त किया जो अद्यावधि अविरल रूप से चला आ रहा है। वि0सं0 1885 की कार्तिक कृष्ण अमावस्या को श्रीजीद्वार में श्रीगिरिधरजी महाराज ने श्रीयदुनाथजी की आड़ी की हटड़ी आरती किया। दूसरे दिन कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा को श्रीजी के संग श्रीमुकुन्दरायजी भी राजभोग अरोगे फिर तिलकायित श्रीदाऊजी महाराज की बहूजी की आज्ञा से मुखियाजी ने श्रीमुकुन्दरायजी को श्रीनाथजी के सामने मिलाप कर पधरा दिया एवं बड़े धूमधाम से कीर्तन व साज समाज के साथ श्रीगिरिधरजी महाराज ने श्रीमुकुन्दरायजी को संपुट में पधराकर नाथद्वारा में स्थित अपने मन्दिर में पाट बैठाया एवं दोबारा राजभोग अरोगे। उसके बाद पुनः श्रीजी के मन्दिर में अन्नकूट अरोगने के लिए प्रभु पालकी में पधारे। पालकी मणिकोठा में पधारी एवं अन्नकूट आरोगकर प्रभु पुनः अपने मन्दिर में पधारे। मि0 मार्ग0 कृ0 10 सं0 1885 को नाथद्वारा से श्रीमुकुन्दप्रभु की यात्रा प्रारम्भ हुई। मार्ग में राजस्थान एवं उत्तर प्रदेश के अनेकानेक प्रदेशों को सनाथ करते हुए मि0 माघ शु0 तृतीया को काशी से 10 कोस पूर्व प्रभु का मुकाम हुआ। वहाँ से बहुत बड़ी शोभायात्रा के साथ श्रीमुकुन्दप्रभु काशी पधारकर गोपाल बाग स्थित बंगला में विराजे। वहाँ मि0 माघ शुक्ल चतुर्थी को प्रातःकाल मंगलभोग आरोगकर मंगला के दर्शन खुले फिर गोपीवल्लभभोग आरोगकर हाथी, घोड़ा, डंका दुन्दभि व सम्पूर्ण वैष्णव समाज के साथ प्रभु श्री गोपाल लालजी के मन्दिर में पधारे एवं दोनों स्वरूप भेले राजभोग अरोगे। श्रीगोपाल लालजी के फूलघर के स्थान पर श्रीमुकुन्दरायजी के मन्दिर का निर्माण का निश्चय  हो चुका था उसी स्थान पर माघ शुक्ल त्रयोदषी सं0 1885 को श्रीमुकुन्दरायजी के मन्दिर के नीव की स्थापना हुई। निर्माण कार्य समाप्त होने पर सं0 1887 की मि0 वैसाख शुक्ल षष्ठी को मन्दिर में वास्तु शान्ति हुई व मि0 वैसाख शुक्ल सप्तमी को श्रीमुकुन्दरायजी अपने निजमन्दिर में पधारे।