षष्ठनिधिस्वरूप श्रीमुकुन्दरायजी

षष्ठगृह तथा उसका परिचय और श्रीमुकुन्दरायजी काशी पधारे

अखण्डभूमण्डलाचार्यवर्य जगदगुरू श्रीमदवल्लभाचार्यचरण का प्रा0 वि0 सं0 1535 में वै0 कृ0 11 को मध्यप्रदेश रायपुर के पास चम्पारण्य नामक स्थान पर हुआ। आपश्री ने भगवद् आज्ञा से ही अपनी अतुल प्रतिभा के द्वारा शुद्धाद्वैत ब्रह्मवाद निर्गुण पुष्टि भक्तिमार्ग का प्राकट्य एवं स्थापन किया। जिस समय आचार्यचरण का प्राकट्य चम्पारण्य में हुआ उसी समय श्रीगोवर्धन पर्वत पर श्रीगोवर्धननाथजी ‘श्रीनाथजी’ के मुखारविन्द का भी प्राकट्य हुआ। कुछ कालान्तर से श्रीआचार्यचरण ने ही श्रीनाथजी के स्वरूप का श्रीगोवर्धन पर्वत से पूर्ण प्राकट्य करवाकर वि0 सं0 1549 में मन्दिर में पाट विराजाया एवं पुष्टिरीति से सेवा प्रकार का प्रारम्भ किया। मूलतः यही सेवा प्रकार पुष्टिमार्ग में अद्यावधि प्रवर्तित है। महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्यचरण ने भगवदाज्ञा से ही विवाह करके गृहस्थाश्रम को अंगीकार किया। आपश्री को दो पुत्ररत्नों की प्राप्ति हुई। जिनमें प्रथम श्रीगोपीनाथजी एवं द्वितीय श्रीविठ्ठलनाथजी (गुसांईंजी) हुए।

श्रीवल्लभाचार्यजी के प्रमुख दो सेव्य स्वरूप हैं। श्रीनाथजी गोपालपुरा (जतीपुरा) में विराजते थे और श्री नवनीतप्रियाजी अड़ैल में कुछ समय एवं बाद में श्रीवल्लभाचार्यजी के लीला प्रवेश के बाद आपश्री के ज्येष्ठ पुत्र श्रीगोपीनाथजी प्रधान आचार्य गद्दी पर विराजमान हुए एवं श्रीनाथजी की सेवा आपको प्राप्त हुई। द्वितीय पुत्र श्रीविठ्ठलनाथजी अड़ैल एवं बाद में श्रीगोकुल में विराजकर श्रीनवनीत प्रियाजी की सेवा करते थें श्रीआचार्यचरण के बड़े पुत्र श्रीगोपीनाथजी ज्यादा समय भूतल पर नहीं विराजे तथा आपश्री के एकमात्र पुत्र श्रीपुरुषोत्तमजी भी कौमार्यावस्था में ही लीला प्रवेश कर गये। अतः दोनों स्थानों एवं स्वरूपों का उत्तरदायित्व श्रीविठ्ठलनाथजी पर स्वतः ही आ गया। अतएव श्रीविठ्ठलनाथजी प्रमुख आचार्य गद्दी पर विराजमान हुए। श्रीविठ्ठलनाथजी के दो विवाह हुए। आपश्री के प्रथम पत्नी (बहुजी) श्रीमती रूक्मिणीजी से 6 पुत्र एवं 4 पुत्रियाँ हुई। द्वितीय पत्नी श्रीमती पद्मावतीजी से एक पुत्र हुए। अर्थात् श्रीरूक्मिणीजी से क्रमशः श्रीगिरिधरजी, श्रीगोविन्दरायजी, श्रीबालकृष्णजी, श्रीगोकुलनाथजी, श्रीरघुनाथजी एवं श्रीयदुनाथजी इस प्रकार 6 पुत्र हुए तथा श्रीशोभाजी, श्रीयमुनाजी, श्रीकमलाजी और श्रीदेवकाजी ये चार पुत्रियाँ हुई। द्वितीय बहूजी श्रीपद्मावतीजी से एकमात्र पुत्र ‘सप्तमलालजी’ श्रीघनश्यामजी हुए। इस प्रकार श्रीविठ्ठलनाथजी के कुल सात पुत्र हुए।

श्रीगुसांईंजी ने अपने जीवनकाल में ही अपने पुत्रों को भिन्न-भिन्न सेव्य स्वरूप पधराकर उनके गृह भी पृथक्-पृथक् व्यवस्थित कर दिये थे। प्रमुख श्रीवल्लभार्चायजी की गद्दी पर स्वयं विराजमान रहे एवं श्रीनाथजी तथा श्रीनवनीतप्रियाजी की सेवा आप स्वयं करते रहे।

श्रीविठ्ठलनाथजी गुसांईंजी ने सर्वप्रथम जब अपने सातों पुत्रों का विभाग करने का विचार किया तब ज्येष्ठ होने के कारण श्रीगिरिधरजी को अपने वंशपरम्परा के बड़ों के ठाकुरजी श्रीमदनमोहनजी (वर्तमान में सप्तम स्वरूप) को पधराने का निर्णय किया और सबसे कनिष्ठ होने के कारण श्रीघनश्यामजी को छोटे स्वरूप श्री बालकृष्णजी (जो निपट छोटा स्वरूप अंगुष्ठ मात्र है, और जिनके साथ श्रीघनश्यामजी खेलते भी थे) पधराने का निश्चय किया। यह स्वरूप श्रीमहाप्रभुजी के सेव्य ‘‘बंटीवारे’’ ठाकुरजी है। परन्तु इस निर्णय को पुनः इसलिये परिवर्तित किया गया, चूंकि श्रीघनश्यामजी श्रीगुसाईंजी के सब पुत्रों में कनिष्ठ अवश्य थे किन्तु अपनी माता के ज्येष्ठ एकमात्र पुत्र थे एवं उन्हें भी ज्येष्ठ पुत्र श्रीगिरिधरजीवत् द्वितीय ज्येष्ठता क्रम में अधिकार प्राप्त होता था। अतः उन्हें अपने घर के वंशपरम्परागत स्वरूप श्रीमदनमोहनजी पधराया गया और श्रीगिरिधरजी को श्री मथुराधीशजी पधराया गया। श्रीबालकृष्णजी जो निपट छोटा स्वरूप था वह बड़े बहुजी के कनिष्ठ होने के कारण श्रीयदुनाथजी (श्रीमहारांजजी) को पधाराने का निर्णय किया गया। परन्तु यह बात जब सप्तमलालजी श्रीघनश्यामजी को ज्ञात हुई तो आपने उन निपट छोटे स्वरूप श्रीबालकृष्णजी को अपने मुखारविन्द में छुपा लिया। जब श्रीयदुनाथजी को पधराने के लिए श्रीबालकृष्णजी के उस स्वरूप को खोजा गया तो वह स्वरूप मिला नहीं, तब श्रीगुसाईजी ने दूसरे ठाकुर श्रीबालकृष्णजी जो उस समय श्रीनवनीतप्रियाजी के पास विराजते थे, उन्हें श्रीयदुनाथजी को पधराने का विचार किया। परन्तु षष्ठलालजी श्रीयदुनाथजी ने इस स्वरूप को स्वीकार नहीं किया और स्वयं तृतीय लालजी श्रीबालकृष्णजी के साथ ही एक ही गृह में विराजकर तृतीय स्वरूप श्रीद्वारिकाधीशजी की ही सेवा करते रहे, यावज्जीवन। इस प्रकार श्रीविठ्ठलनाथजी श्रीगुसांईंजी के समय में षष्ठलालजी श्रीयदुनाथजी के षष्ठगृह का एवं षष्ठस्वरूप का पृथक्करण ही नहीं हो पाया। अर्थात् षष्ठगृह अलग से बना ही नहीं था। श्रीगुसांईंजी के समय में तो प्रथम गृह से लेकर पंचम और फिर षष्ठ को छोड़कर सीधे सप्तमगृह की रचना एवं पृथक्करण हुआ था जो निम्नलिखित है-

1. प्रथम लालजी श्रीगिरिधरजी को प्रथम गृह के सम्पूर्ण अधिकार के साथ निधिस्वरूप श्रीमथुराधीशजी प्राप्त हुए। वर्तमान में आप कोटा (राजस्थान) में विराजमान हैं।

2. द्वितीय लालजी श्रीगोविन्दरायजी को द्वितीय गृह के सम्पूर्ण अधिकार के साथ द्वितीय निधिस्वरूप श्रीविठ्ठलनाथजी प्राप्त हुए। वर्तमान में आप श्रीनाथद्वारा में ही विराजमान हैं।

3. तृतीय लालजी श्रीबालकृष्णजी को तृतीय गृह के सम्पूर्ण अधिकार के साथ तृतीय निधिस्वरूप श्रीद्वारिकाधीशजी प्राप्त हुए। वर्तमान में आप कांकरोली (राजस्थान) में विराजमान हैं।

4. चतुर्थ लालजी श्रीगोकुलनाथजी को चतुर्थ गृह के सम्पूर्ण अधिकार के साथ चतुर्थ निधिस्वरूप श्रीगोकुलनाथजी प्राप्त हुए। वर्तमान में आप श्रीमद्गोकुल में विराजमान हैं।

5. पंचम लालजी श्रीरघुनाथजी को पंचम गृह के सम्पूर्ण अधिकार के साथ पंचम निधिस्वरूप श्रीगोकुलचन्द्रमाजी प्राप्त हुए। वर्तमान में आप कामवन (कामा) (राजस्थान) में विराजमान हैं।

6. षष्ठलालजी श्रीयदुनाथजी का अलग से कोई गृह नहीं बना तथा न ही अलग से कोई स्वरूप प्राप्त हुआ। आपश्री तृतीय लालजी श्रीबालकृष्णजी के साथ ही विराजकर तृतीयनिधि श्रीद्वारिकाधीशजी की ही सेवा करते रहे।

7. सप्तम लालजी श्रीघनश्यामजी को सप्तमगृह के सम्पूर्ण अधिकार के साथ सप्तम निधिस्वरूप श्रीमदनमोहनजी प्राप्त हुए। वर्तमान में आप कामवन (कामा) (राजस्थान) में विराजमान हैं।

अतएव श्रीदाऊजीमहाराज तिलकायितश्री ने कालान्तर में श्रीगिरिधरजी महाराज काशीवालों को षष्ठनिधि स्वरूपत्वेन ‘श्रीमुकुन्दरायजी’ पधराकर षष्ठगृह के सम्पूर्ण अधिकार ‘हटड़ी की महाराजजी की आड़ी की आरती, पालकी’ प्रदान किया। फलतः ‘श्रीमुकुन्दरायजी’ षष्ठनिधिस्वरूप हुए और काशीगृह ‘षष्ठगृहपीठ’ हुआ।

वि0 सं0 1879 में गो. तिलकायित श्रीदामोदरजी (श्रीदाऊजी) महाराज ने सप्तस्वरूप का मनोरथ किया। कार्तिक सुदी-1 को अन्नकूट अरोगाया। तब श्रीजी के पास 6 पालकी पधारी। अर्थात् प्रथम गृह से लेकर पंचम एवं षष्ठगृह को छोड़कर सप्तम गृह की पालकी पधारी। चूंकि षष्ठगृह का प्रकार पृथक रूप में श्री गुसांईंजी के समय से ही नहीं हुआ था, अतः षष्ठगृह से कोई स्वरूप या पालकी नहीं पधारी। इस अलौकिक अवसर पर षष्ठ लालजी श्रीयदुनाथजी के वंशज शुद्धाद्वैत मार्तण्ड श्रीगिरिधरजी महाराज काशीवाले वहाँ पर विराजमान थे। उस समय अन्य वल्लभ कुल के बालक अर्थात् प्रथम गृह से लेकर पंचम एवं सप्तम गृह के बालक श्रीजी में अपने-अपने स्वरूप के साथ अपनी-अपनी सेवा में तत्पर थे। परन्तु ऐसे अलौकिक आनन्दपूर्ण समय में भी षष्ठलालजी श्रीयदुनाथजी के वंशज श्रीगिरिधरजी महाराज (काशी) को अत्यन्त उदास देखकर अन्य आचार्य बालकों ने प्रश्न किया ‘‘जो या समय ऐसो अलौकिक आनन्द है तामें आपको चित्त उदास क्यों है’’? यह प्रश्न सुनकर प्रथर बार तो आपश्री ने ‘कुछ नहीं’ ऐसा कहकर कोई उत्तर नहीं दिया, परन्तु पुनः वही प्रश्न होने पर श्रीगिरिधरजी महाराज ने कहा कि ‘‘देखों हमारे बड़ेन को (श्रीषष्ठलालजी,श्रीयदुनाथजी को) श्रीजी के घर में कछु नाम नहीं है, न तो हटड़ी की आरती न पालकी, या बात की चित्त में निरन्तर उदासीनता है।’’ यह उत्तर सुनकर अन्य वल्लभकुल के बालक मौन हो गये। अन्नकूट मनोरथ का समस्त सेवाकार्य सानन्द सम्पन्न हुआ, सब बालक अपने-अपने स्वरूपों के साथ अपने-अपने घर पधारे। परन्तु श्रीगिरिधरजी महाराज के चित्त में उदासीनता बनी रही।

उपर्युक्त उत्सव समापन के बाद भी श्रीगिरिधरजी महाराज (काशी) वहीं श्रीनाथद्वारा में ही विराजमान रहें। नित्य यथा अवसर तिलकायित श्रीदाऊजी महाराज से आपश्री का सत्संग होता था। तिलकायितश्री सेवा सिद्धान्तान्तर्गत कई समस्याओं का समाधान श्रीगिरिधरजी महाराज (काशी) से करवाते थे। इस तरह तिलकायितश्री अनेक प्रकार के प्रश्नों के द्वारा श्रीगिरिधरजी महाराज की परीक्षा भी करते रहे। जब श्रीदाऊजी महाराज तिलकायित ने अच्छी तरह से देख लिया कि श्रीगिरिधरजी महाराज (काशी) श्रीभागवतत्वज्ञ, दम्भादिरहित, कृष्ण सेवापर एवं सब प्रकार से निपुण और योग्य है । तब वि0 सं0 1879 में माघ शु0 15 पूर्णिमा चन्द्रग्रहण के अवसर पर उनसे ‘गोपालमन्त्र-दीक्षा’ लेने का निश्चय किया। परन्तु श्रीदाऊजी महाराज के निकटतम आचार्य बालकों ने कहा कि इनसे गोपालमन्त्र लेना ठीक नहीं है, यदि लेना हो तो अपनी परम्परा के आचार्य बालक से लेना चाहिये। तब श्रीदाऊजी महाराज ने सहज भाव से उस बात को स्वीकार करते हुए भगवद् आज्ञा पर इस निर्णय को छोड़ दिया। उस समय 21 वल्लभकुल बालकों के नाम की चिट्ठियाँ तैयार करके श्रीनाथजी के सन्मुख डाली गई और उसमें श्रीगिरिधरजी महाराज काशीवालों के नाम की चिट्ठी ही खुली। अतः ति0 श्रीदाऊजी महाराज ने श्रीनाथजी की आज्ञा से ही शुद्धाद्वैत मार्तण्ड श्रीगिरिधरजी महाराज काशीवालों से ही गोपालमन्त्र की दीक्षा लिया। दीक्षोपरान्त श्रीदाऊजी महाराज तिलकायितश्री ने श्रीगिरिधरजी महाराज से कहा कि आपकों गुरूदक्षिणा में क्या देवें? उत्तरमें श्रीगिरिधरजी महाराज (काशी) ने कहा ‘‘हम मांगेगें सो आपसूँ दियो न जावेगो’’ तब श्रीदाऊजी महाराज ने कहा ‘‘तुम जो मांगोगे सो हम देंगे श्रीजी और लालन को छोड़कर ’’ तब श्रीगिरिधरजी महाराज (काशी) ने मांगा-‘‘हमारे बड़ेन को श्रीजी के घर में कछु नाम नहीं है, बड़ेन ने श्रीठाकुरजीहू पधराये नहीं हैं। ताते श्रीजी के पास श्रीठाकुरजी बिराजे हैं तामेंसूं एक-स्वरूप पधराय दीजिये’’ तब श्रीदाऊजी महाराज ने आज्ञा किया ‘‘वस्तु तो बहोत मांगी ये कैसे दीनी जाय’’ तब श्रीगिरिधरजी महाराज ने कहा ‘‘आपके मन में आवे तो सहज है’’ तब श्रीदाऊजी महाराज ने कहा ‘‘हम आपसूं वचन में आय गये हैं, हमको हू अनुभवभयो है जो आप ’श्रीमहाराजजी’ प्रगटे हो, सो बिना ठाकुरजी पधराये पिंड न छोड़ोगे’’ तब श्रीगिरिधरजी महाराज मौन रहे। ‘‘मौनं स्वीकृति लक्षणम्’’।

उक्त वार्तालाप के बाद कुछ समय व्यतीत हो गया तो श्रीगिरिधरजी महाराज (काशी) ने तिलकायित श्रीदाऊजी महाराज को श्रीठाकुरजी पधराने के विषय में पुनः विनती किया एवं आग्रहपूर्वक वि0 स0 1880 आश्विन सु0 6 को एक पत्र लिखवाया तथ वि0 सं0 1880 क्वार सु. 5 को एक खत लिखवाया। जिनमें श्री नवनीतप्रियाजी के वारा के श्रृंगार तथा श्रीनाथजी की षष्ठ लालजी श्रीयदुनाथजी के घर की आड़ी की हटड़ी की आरती पालकी एवं श्रीठाकुरजी पधरा देने का लिखा गया। इस तरह वि0 सं0 1880 से षष्ठगृह के सम्पूर्ण अधिकार अर्थात् स्वरूपत्वेन एवं गृहत्वेन, काशी को प्राप्त हुए। यह अधिकार प्राप्ति श्रीश्रीजी की इच्छा से एवं श्रीदाऊजी महाराज तिलकायितश्री की कृपा से तथा श्रीशुद्धाद्वैतमार्तण्ड गिरिधरजी महाराज के परिश्रम से सिद्ध हुई।

उपर्युक्त लेख पत्र देने के बाद तदनुसार श्रीठाकुरजी पधराने का निश्चय हुआ परन्तु इसी बीच दुर्भाग्य से तिलकायित श्रीदाऊजी महाराज वि0 सं0 1882 फाल्गुन कृ0 30 को लीलाप्रवेश कर गये। इसके बाद श्रीगिरिधरजी महाराज ने कुछ समय व्यतीत होने के बाद श्रीदाऊजी महाराज के बहूजी से प्रार्थना किया कि ‘‘हमकूं श्रीदाऊजी महाराज ने कछु देवेकूं कहे हते सो आप जाने हौं ?’’ तब श्रीबहूजी ने आज्ञा किया कि ‘‘हम जाने है’’ तब आपने पुनः विनती किया कि आप पत्र में लिख दें तो अच्छा रहेगा। तब श्रीबहूजी महाराज ने लेखपत्र लिख दिया। तदनन्तर समय सौकर्य देख के (वि0 सं0 1885 को दीपावली के दिन शाम को सर्वप्रथम श्रीगिरिधरजी महाराज (काशी) ने श्रीयदुनाथजी की आड़ी की षष्ठगृह की हटड़ी की आरती श्रीजी की करी एवं दूसरे दिन प्रातः का0 सु0 1 को राजभोग सरने के बाद ‘श्रीमुकुन्दरायजी’ का स्वरूप श्रीगिरिधरजी महाराज काशीवालों को पधरा दिया गया। षष्ठगृह का स्थान जो अभी तक रिक्त था वह पूर्ण हुआ तथा षष्ठनिधि स्वरूप का स्थान जो अभी तक रिक्त था वह भी पूर्ण हुआ। षष्ठनिधि स्वरूप श्रीमुकुन्दरायजी हुए एवं षष्ठगृह के सम्पूर्ण अधिकार लेख-पत्र करके षष्ठलालजी श्रीयदुनाथजी की तरफ की हटड़ी की आरती एवं पालकी श्रीगिरिधरजी महाराज (काशी) को प्रदान किया गया। इस प्रकार षष्ठगृह के सम्पूर्ण अधिकार काशीगृह को प्राप्त हुए, षष्ठ गृहाधिपती श्रीगिरिधरजी महाराज हुए एवं षष्ठलालजी श्रीयदुनाथजी के बांटे के षष्ठस्वरूप श्रीमुकुन्दरायजी हुए।

 

षष्ठनिधि श्रीमुकुंदरायजी का प्राचीन मंदिर, नाथद्वारा

वस्तुतः सातों स्वरूपों का क्रम श्रीगुसाईंजी के सात बालकों से हैं, न कि स्वरूपों से। कारण कि यदि श्रीमथुराधीशजी को सप्तम लालजी श्रीघनश्यामजी प्राप्त करते तो श्रीमथुराधीशजी सप्तम स्वरूप कहे जाते एवं श्रीमदनमोहनजी प्रथम लालजी श्रीगिरिधरजी द्वारा प्राप्त किये जाने पर प्रथम स्वरूप कहे जाते। कहने का तात्पर्य यही कि षष्ठलालजी श्रीयदुनाथजी ने जब श्रीबालकृष्णजी (सूरत) के स्वरूप को स्वीकार ही नहीं किया और अपने भाग के स्वरूप के रूप में अपने जीवनकाल में कभी भी सेवा नहीं किया, तो उन्हें हम षष्ठस्वरूप कैसे कह सकते है ? मूलतः श्रीयदुनाथजी के देने को जिन श्रीबालकृष्णजी के स्वरूप का विचार श्रीगुसांईंजी ने किया था, एवं श्रीयदुनाथजी ने स्वीकार नहीं किया तब उन स्वरूप को तो पुनः श्रीजी के पास ही पधरा दिया गया था जो आज भी वहीं पर विराजमान हैं।

वि0 सं0 1885 में षष्ठनिधिस्वरूप श्रीमुकुन्दरायजी एवं षष्ठगृह के सम्पूर्ण अधिकार प्राप्त होने के बाद पुनः वि0 सं0 1893 में काशीस्थ षष्ठगृहाधिपति श्रीगिरिधरजी महाराज ने षष्ठनिधिस्वरूप श्रीमुकुन्दरायजी को काशी से नाथद्वारा पधराकर मनोरथ करने का विचार किया। उस समय वहाँ के तिलकायित श्रीगोविन्दरायजी तथा उनके माता श्रीलक्ष्मी बहूजी से श्रीगिरिधरजी महाराज (काशी) ने आज्ञा प्राप्त की। वहां से तिलकायित श्री की सहर्ष स्वीकृति आ जाने के बाद श्रीगिरिधरजी महाराज (काशी) अपने षष्ठनिधिस्वरूप श्रीमुकुन्दरायजी को आषाढ़ मास में श्रीनाथजी के साथ षष्ठ निधिस्वरूप श्रीमुकुन्द प्रभु का छप्पन भोग का मनोरथ सिद्ध भया। तदनन्तर श्रीगिरिधर महाराज ने कार्तिक मास में चार स्वरूपों का उत्सव करने का विचार किया। आषाढ़ शु0 5 को श्रीलक्ष्मी बहूजी ने तथा आषाढ़ शु0 7 को श्रीगिरिधरजी महाराज (काशी) ने पत्र द्वारा विज्ञप्ति की कि श्रीद्वारिकाधीशजी को का0 शु0 10 के दिन चार स्वरूपों के उत्सव में श्रीजी के पास पधरावें। श्रीगिरिधरजी महाराज (काशी) ने तो अपने पत्र में अत्यधिक नम्रता के साथ लिखा कि यदि आप श्रीद्वारिकाधीशजी को नाथद्वारा नहीं पधरावेंगे तो यह चार स्वरूप का मनोरथ सिद्ध नहीं होगा और मेरी लाज रखना आपके हाथ में है। श्रीगिरिधरजी महाराज (काशी) के अनुरोध को स्वीकार करते हुए तृतीय गृहाधिपति श्रीपुरुषोत्तमजी महाराज ने अन्नकूटोत्सव पर एवं पुनः का0 शु0 10 को चार स्वरूपोत्सव पर श्रीद्वारिकाधीशजी को श्रीजी द्वार पधराकर श्रीगिरिधरजी महाराज (काशी) के अनुरोध की रक्षा किया। इस तरह वि0 सं0 1896 में चार स्वरूपों का मनोरथ सिद्ध भया। इस समय श्रीनाथजी के पास श्रीनवनीत प्रियाजी, श्रीविट्ठलनाथजी, श्रीद्वारिकाधीशजी, श्रीमुकुन्दरायजी पधारे और महान आनन्दोत्साह के साथ यह अलौकिक चार स्वरूप का महोत्सव पूर्ण हुआ।

षष्ठनिधि श्रीमुकुंदरायजी का नवीन मंदिर

श्रीगुसांईंजी के समय से ही षष्ठगृह एवं/या षष्ठस्वरूप की स्थिति होती तो तिलकायित श्रीदाऊजी महाराज श्रीगिरिधरजी महाराज (काशी) को षष्ठनिधिस्वरुपत्वेन श्रीमुकुन्दरायजी पधराकर षष्ठगृह के सम्पूर्ण अधिकर हटड़ी की आरती, पालकी’ क्यों प्रदान करते? क्यों उन्होंने प्रथम, द्वितीय, तृतीय आदि अन्य गृहों के अधिकार एवं स्वरुप किसी को प्रदान नहीं किया? अर्थ स्पष्ट है कि अन्य प्रथम से पंचम एवं सप्तम गृहों की स्थिति तो श्रीगुसांईंजी  के समय से ही सिद्ध थी अतः किसी को प्रदान करने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था, परन्तु चूंकि षष्ठगृह, स्वरूप की स्थिति श्री गुसांईंजी के समय नहीं थी अतः श्री दाऊजी महाराज ने षष्ठगृहाधिकार एवं षष्ठस्वरूप को श्रीयदुनाथकुलोद्भव श्रीगिरिधरजी महाराज (काशी) को प्रदान किया। षष्ठगृहाधिकार एवं षष्ठनिधि स्वरूप प्रदान की प्रक्रिया से पूर्व श्रीनाथजी में षष्ठगृह सेवा प्रकार एवं षष्ठस्वरूप का कोई भी क्रम प्राप्त नहीं होता है। इसीलिये तो वि0 सं0 1879 में श्रीजी में जब सप्तस्वरूपोत्सव हुआ तब श्रीयदुनाथजी के वंश में होने के कारण श्रीगिरिधरजी महाराज (काशी) को ही अन्तःकरण में कष्ट हुआ कि देखो हमारे बड़ेन को (षष्ठलालजी श्रीयदुनाथजी को) या घर में ( प्रधान बड़े घर में) कुछ नाम नहीं है, न तो हटड़ी की आरती न पालकी’ इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि श्रीगुसांईंजी के अवशिष्ट कार्य को उन्हीं के स्थान पर विराजमान तिलकायित श्रीदाऊजी महाराज ने श्रीगिरिधरजी महाराज (काशी) को षष्ठगृह के समस्त अधिकारों के साथ षष्ठनिधिस्वरूप श्रीमुकुन्दरायजी पधराकर पूर्ण किया एवं षष्ठलालजी श्रीयदुनाथजी के अवशिष्ट प्राप्य स्वरूप गृहाधिकार को उन्हीं के वशंज श्रीगिरिधरजी महाराज काशीवालों ने प्रधानगृह से प्राप्त करके पूर्ण किया।

वि0 सं0 2023 में एक बार पुनः श्रीमुकुन्दप्रभु को श्रीजीद्वार पधराने का सुअवसर प्राप्त हुआ। नि. ली. तिलकायित श्रीगोविन्दलालजी महाराज ने सप्तस्वरूपोत्सव करने का संकल्प किया। षष्ठनिधिस्वरूप श्रीमुकुन्दरायजी को पधराने के वास्ते तत्कालीन षष्ठपीठाधीश्वर श्रीमुरलीधरलालजी महाराज (काशी) को निमंत्रण भेजा। उस मनोरथ में भी श्रीमुकुन्दरायजी ही षष्ठगृहनिधिस्वरूपत्वेन वहां पर विराजे। उक्त मनोरथ में श्रीनाथजी, श्रीनवनीतप्रियाजी, श्रीविठ्ठलनाथजी, श्रीद्वारिकाधीशजी, श्रीगोकुलचन्द्रमाजी, श्रीमुकुन्दरायजी, श्रीमदनमोहनजी एवं श्रीमथुराधीशजी की गोद के स्वरूप श्रीनटवरलालजी साथ विराजकर छप्पन भोग अरोगे तथा पवित्रा एकादशी पर सब स्वरूप साथ विराजकर पवित्रा भी धरे।

इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि सात स्वरूप में श्रीमुकुन्दरायजी हैं। श्रीगुसांईंजी के छठ्ठे लालजी श्रीयदुनाथजी का ‘‘हक’’ जो उस समय (श्रीगुसांईंजी के) भगवदइच्छावश  (श्रीयदुनाथजी को) प्राप्त नहीं हुआ था वहीं कालान्तर में श्रीगुसांईंजी के ही बड़े गृह से उन्हीं के स्वरूप टीकेत श्रीदाऊजी महाराज द्वितीय ने षष्ठलालजी श्रीयदुनाथजी के वंशज एवं उन्हीं के स्वरूप शुद्धाद्वैतमार्तंड श्रीगिरिधरजी महाराज (काशी) को श्रीठाकुरजी सहित सम्पूर्ण षष्ठगृहाधिकार प्रदान करके पूर्ण किया। उसी विषय के (षष्ठगृहाधिकार के) लेखपत्रों का विवरण निम्नलिखित है-

1. प्रथम लेखपत्र: तिलकायित श्रीदाऊजी महाराज द्वितीय का लेखपत्र है। यह वि0 सं0 1880 आश्विन शु. 5 गुरूवार को लिखा गया है। इसमें तिलकायित श्रीदाऊजी महाराज द्वि0 ने षष्ठगृह के सम्पूर्ण अधिकार श्रीगिरिधरजी महाराज (काशी) को दिये हैं। इस लेखपत्र में श्रीलक्ष्मीबहूजी तथा श्रीचारूमति बहूजी की लिखित सम्मति है।

2. द्वितीय लेखपत्र: तिलकायित श्रीदाऊजी महाराज द्वितीय का है। यह वि0 सं0 1880 आश्विन शु0 6 शुक्रवार का लिखा गया है। इस पत्र में स्वरूप पधरा देने का लिखा है। इसमें श्रीलक्ष्मी बहूजी तथा श्री चारूमति बहूजी की लिखित सम्मति है।

3. तृतीय लेखपत्र: तिलकायित श्रीदाऊजी महाराज द्वि0 का दक्षिण हैदराबाद में लिखा गया है। यह पत्र श्रीगिरिधरजी महाराज (काशी) के पत्र कार्तिक कृ0 5 के प्रत्युत्तर में लिखा गया है। वि0 सं0 1882 कार्तिक शु0 5 का है। इसमें श्रीठाकुरजी पधरा देने का तथा षष्ठगृह बना देने की आज्ञा है।

4. चतुर्थ लेखपत्र: श्रीलक्ष्मी बहूजी का है। इसमें सेवा, श्रृंगार, आरती एवं श्रीठाकुरजी पधरा देने बाबत विषय की पुष्टि की गई है। वि0 सं0 1883 माघ शु0 5 का है।

5. पंचम लेखपत्र: श्रीलक्ष्मी बहूजी का है। वि0 सं0 1883 पौष शु0 3 रविवार का है। इसमें तिलकायित श्रीदाऊजी महाराज द्वितीय ने जो (स्वरूप पधराकर षष्ठगृहाधिकार प्रदान की) आज्ञा दिया था उसको पुनः लेखबद्ध करके……..‘‘वह हमें पूर्ण मान्य है’’ ऐसा प्रमाणित किया गया है।

6. षष्ठ लेखपत्र: श्रीलक्ष्मीबहूजी तथा श्रीचारूमति बहूजी का है। यह पत्र वि0 सं0 1885 मागसर वदी 1 का है। इस पत्र में षष्ठ स्वरूप पधराकर सम्पूर्ण षष्ठगृहाधिकार प्रदान किया है। श्रीजी के बड़े गृह में सप्त स्वरूप पधारें तब किस तरह पधारें, कैसे विराजे आदि विवरण भी दिया गया है। पुनश्च श्रीजी के घर में तिलकायितश्री एवं परिचारक के बाद सम्पूर्ण सेवा श्रृंगार का अधिकार भी षष्ठगृह काशी के टीकेत को प्रदान किया गया है।

उपर्युक्त लेखपत्र में साक्षीरूप में जो दो विशेष हस्ताक्षर हैं वे प्रथम-गो0 श्रीप्रद्युम्नजी सुत श्रीयदुनाथजी की गवाही है वह बड़ौदा के घर की स्वीकृति है।

द्वितीय-गो0 श्रीपुरूषोत्तमजी की गवाही है वह मथुरा के गृह की स्वीकृति है। श्रीजी के प्रधान गृह से प्राप्त षष्ठ स्वरूप एवं गृहाधिकार लेखपत्रों में यहाँ तक स्पष्ट किया गया है कि यदि भविष्य में कोई इन लेखपत्रों में जो लिखा है उससे विपरीत करता है या लिखे में कसर करेगा तो वह समाज पंचन में मिथ्यावादी कहाँ जावेगा तथा वह श्रीगोवर्धनधर निकुंजनायक श्रीश्रीनाथजी से विमुख होगा। विचारिये यहाँ पर तिलकायितश्री श्रीदाउजी महाराज तथा उनके बहूजी ने अत्यन्त कृपापूर्वक षष्ठगृह काशी के लिए कितनी ठोस एवं अविचल आज्ञा प्रदान किया है। अतः काशी का षष्ठगृहत्व एवं श्रीमुकुन्दरायजी का षष्ठस्वरूपत्व सर्वथा निर्विचिकित्सित एवं निर्विवाद है। ये लेखपत्र आज भी हमारे षष्ठगृह काशी में सुरक्षित विराजमान है। सम्बन्धित कोई भी जिज्ञासु यदि दर्शन करना चाहे तो कर सकता है।

7. सप्तम लेखपत्र: श्रीलक्ष्मी बहूजी लालजी श्रीगोविन्दरायजी का है। वि0 सं0 1895 मार्ग कृ0 10 भौमवार का है। यह पत्र समग्र वैष्णवों के सूचनार्थ सार्वजनिक है। इसमें स्पष्ट उल्लिखित है कि श्रीमुकुन्दरायजी को श्रीगिरिधरजी महाराज (काशी) को षष्ठनिधि स्वरूपत्वेन सम्पूर्ण षष्ठगृहाधिकार के साथ पधरा दिया गया हैं। अतः अब से समग्र वैष्णव जन षष्ठस्वरूप की भेंट आदि सब षष्ठगृह काशी प्रेषित करेंगे। ऐसी हमारी आज्ञा है।

श्री प्रधान गृहपीठ श्रीनाथद्वारा से श्रीदाउजी महाराज (द्वितीय) तिलकायत आपके एवं दोंनो बहुजी द्वारा प्राप्त काशी के षष्ठ गृहाधिकार के लेख पत्रों में साक्षी रूप में जिन आचार्यों आदि के हस्ताक्षर हैं उनका सूक्ष्म परिचय

1. गो. ति. श्रीगोविन्दजी

2. गो. श्री द्वारिकेशजी (श्री जी के परिचारक)

3. गो. श्री योगी गोपेश्वरजी (द्वितीय पीठाधीश्वर)

4. गो. श्री पुरूषोतमजी (पुत्र श्री गोकुलनाथजी तृतीय पीठाधीश्वर)

5. गो. श्री व्रजपालजी (सप्तम पीठाधीश्वर)

6. गो. श्री यदुनाथजी (पुत्र श्री प्रद्युमनजी शेरगढ वाले)
7. गो. श्री गोवर्धनजी

8. गो. श्री कृष्णरायजी (पुत्र योगीगोपेश्वरजी)

9. गो. श्री विठ्ठलनाथजी (प्रथम पीठाधीश्वर – उपनाम कन्हैया लाल जी)

10. गो. श्री लक्ष्मणजी (चतुर्थ पीठाधीश्वर)

11. गो. श्री पुरूषोतमजी (मथुरा वाले)

12. गो. श्री जमुनाबहुजी (पंचम पीठाधीश्वर)

13. गणेश भट्ट

14. राणा जवान सिंहजी

15. दीवान-मोकमसिंहजी महाराज किशनगढ

16. श्री देवकृष्ण अधिकारी श्रीनाथद्वारा

1. गो. श्रीगोविन्दजी – प्रा.वि.सं. 1876 मि.का.शु.14. आप श्री द्वितीय गृह के योगी श्री गोपेश्वरजी के पौत्र तथा गो. श्रीकृष्णरायजी के पुत्र है। आप द्वितीय गृह से तिलकायत श्रीदाउजी महाराज (द्वितीय) के गोद आये। तत्कालीन तिलकायत आपश्री ही थे।

2. गो. श्रीद्वारकेशजी – प्रा.वि.सं. 1852 उपनाम घन्नुर्जा जतीपुरा वाले। आप श्रीजी के परिचारक है। आप के पिता गो. श्री मथुरानाथजी (कोटा) प्रा.वि.सं. 1828. प्र. गृ. 2 – से काकावल्लभ की मुख्य परम्परा से है।

3. गो. श्री योगी गोपेश्वरजी – द्वितीय गृहाधीश आप तृ.गृ. 2 – से गोद आये। प्रा.वि.सं. 1835

4. गो. श्रीपुरूषोतमजी – प्रा.वि.सं. 1847 आप तृ. गृ. के तत्कालीन गृहाधीश रहे। आप के पिता श्री गोकुलनाथजी प्रा. सं. 1821 है।

5. गो. श्रीव्रजपालजी – आप तृ.गृ.1 – से गोद आये सप्तम गृह में, तत्कालीन सप्तमेंश हैं। आप का प्रा. वि. सं. 1860. है।

6. गो. श्रीयदुनाथजी – प्रा.वि.सं. 1868 षष्ठ गृह 1 – से शेरगढ़ वाले है । आप के पिता श्रीप्रद्युमनजी प्रा. वि. सं. 1836 है ।

7. गो. श्रीगोवर्धनजी (बम्बई वाले) – प्रा.वि.सं. 1825 आप श्रीमथुरानाथजी वि. सं. 1771 के पुत्र हैं। आपका नाम गोवर्धनेशजी भी वंश वृक्षों में प्राप्त होता है।

8. गो. श्रीकृष्णरायजी – प्रा.वि.सं. 1857 आप श्री योगी गोपेश्वर जी के ज्येष्ठ पुत्र हैं।

9. गो. श्रीविठ्ठलनाथजी – आप प्र.गृ. 7-से है। प्रा.वि.सं. 1878 हैं। उपनाम श्रीकन्हैयालालजी। आप के पिताश्री का नाम प्रभुजी प्रा.वि.सं. 1845 है।

10. गो. श्रीलक्ष्मणजी – प्रा. वि. सं. 1866 है। आप द्वि.गृ. 2 – से चतुर्थ गृह में श्रीव्रजपतिजी के गोद आये। आपके जन्मदाता पिता गो. श्रीघनश्यामजी प्रा.वि.सं. 1841 हैं।

11. गो. श्रीपुरूषोतमजी – आप ख्यालवाले के नाम से प्रसिद्ध मथुरा गृह से ष.गृ. 2 से है। प्रा.वि.सं. 1805 है।

12. गो. श्रीजमुनाबहुजी – आप श्री कामवन वाले पं.गृ. के गृहाधीश गो. श्रीदेवकीनन्दनजी प्रा.वि.सं. 1788 के बड़े बहुजी हैं।

अतएव श्री श्रीनाथजी सूं आदि लेके सात स्वरूपन को अनुक्रम अब टीकेत स्थान

श्री श्रीनाथजी श्रीइन्द्रदमनजी (श्री राकेशजी) महाराज नाथद्वारा

श्रीनवनीतप्रियाजी श्रीइन्द्रदमनजी (श्री राकेशजी) महाराज नाथद्वारा

श्रीमथुराधीशजी श्रीविठ्ठलनाथजी महाराज (श्रीलालमणीजी) कोटा

श्रीविट्ठलनाथजी श्रीकल्याणरायजी महाराज नाथद्वारा

श्रीद्वारिकाधीशजी श्रीब्रजेशकुमारजी महाराज कांकरोली

श्रीगोकुलनाथजी श्रीदेवकीनन्दनजी महाराज (सुरेश बाबा) गोकुल

श्रीगोकुलचन्द्रमाजी श्रीवल्लभलालजी महाराज कामवन

श्रीमुकुन्दरायजी श्रीश्याममनोहरजी महाराज काशी

श्रीमदनमोहनजी श्रीघनश्यामलालजी महाराज कामवन

श्रीजी के प्रधान गृह से प्राप्त षष्ठ स्वरूप एवं गृहाधिकार लेखपत्रों में यहाँ तक स्पष्ट किया गया है कि यदि भविष्य में कोई इन लेखपत्रों में जो लिखा है उससे विपरीत करता है या इस लिखे में कसर करेगा तो वह समाज पंचन में मिथ्यावादी कहा जावेगा तथा वह श्रीगोवर्धनधर निकुंजनायक श्रीश्रीनाथजी से विमुख होगा। विचारिये यहाँ पर तिलकायितश्री श्रीदाऊजी महाराज तथा उनके बहूजी ने अत्यन्त कृपापूर्वक षष्ठगृह काशी के लिए कितनी ठोस एवं अविचल आज्ञा प्रदान किया है। अतः काशी का षष्ठगृहत्व एवं श्रीमुकुन्दरायजी का षष्ठस्वरूपत्व सर्वथा निर्विचकित्सित एवं निर्विवाद है। ये लेखपत्र आज भी हमारे षष्ठगृह काशी में सुरक्षित विराजमान है। सम्बन्धित कोई भी जिज्ञासु यदि दर्शन करना चाहे तो कर सकता है।

श्रीगोवर्धनधारी श्रीनाथजी एवं श्रीमुकुन्दप्रभु की इच्छा से ही षष्ठलालजी श्रीयदुनाथजी (महाराजजी) के कुल में उत्पन्न काशीस्थ षष्ठपीठाधीश्वर शुद्धाद्वैतमार्तण्ड श्रीगिरिधरजी महाराज ने अपने अगाध पाण्डित्य, अतुल प्रताप, वल्लभीय पुष्टि सेवारस मर्मज्ञता, भोगराग श्रंगृार में विशेषता, रसभाव गाम्भीर्य आदि अनेक गुणों से तिलकायित श्रीदाऊजी महाराज को प्रसन्न किया तथा श्रीदाऊजी महाराज को गोपालमंत्र की दीक्षा दिया एवं गुरूदक्षिणा में षष्ठनिधि श्रीमुकुन्दरायजी को प्राप्त किया और षष्ठनिधि श्रीमुकुन्दरायजी को वि0 सं0 1885 माघ शु0 4 चतुर्थी को काशी में श्रीगोपाल मन्दिर जीवनजी की हवेली में पधराया था।

भुविभक्तिप्रचारैककृते स्वान्वयकृत् पिता।

स्ववंशे स्थापिताशेष स्वमाहात्म्यस्मयापहः।।

ऐसे श्रीमद्धल्लाभाचार्यचरण के वंश में प्रकट तिलकायित श्रीदाऊजी महाराज (जिन्होंने श्रीमुकुन्दरायजी पधराया) साक्षात् श्रीगुसांईंजी  श्रीविठ्ठलनाथजी के स्वरूप अवतार थे। इसी तरह श्रीगिरिधरजी महाराज (काशी) (जिन्होनें षष्ठ निधिस्वरूप श्रीमुकुन्दरायजी एवं षष्ठगृहाधिकार प्राप्त किया) साक्षात् षष्ठलालजी श्रीयदुनाथजी के स्वरूप अवतार थे। इसीलिये श्रीदाऊजी महाराज ने भी आज्ञा किया है कि ‘‘आप महाराजजी प्रगटे हो, ठाकुरजी लिये बिना पिंड न छोड़ोगे’’। स्पष्ट है कि श्रीगिरिधरजी महाराज श्री यदुनाथजी काही पुनः प्राकट्य था और श्रीयदुनाथजी षष्ठलालजी को श्रीगुसांईंजी के सिवा और कोई ठाकुरजी नहीं पधरा सकता, अतःश्रीदाऊजी महाराज श्रीगुसांईंजी  का ही पुनः प्राकट्य था। इसी षष्ठगृह के निर्माणार्थ एवं षष्ठ स्वरूप श्रीमुकुन्दरायजी प्रदानार्थ तथा प्रदान की स्वीकृत्यर्थ ही इन दोनों आचार्यों (श्रीगुसांईंजी एवं श्री यदुनाथजी) का पुनः प्राकट्य हुआ, अवशिष्ट कार्य की पूर्ति के लिये। युगभेद हो सकता है परन्तु स्वरूपभेद वा लीलाभेद नहीं होता। तात्पर्य यही है कि वही लीला युगभेद से यहां प्रकट हुई। लीला वही है, स्वरूप वही है, प्रदाता एवं आदाता भी वही है, बस केवल युगभेद है।

गो. षष्ठ पीठाधिस्वर श्रीश्याममनोहरजी महाराज