श्रीगिरिधरजी महाराज का जीवन परिचय

तिलकायित गो.श्रीदाउजी महाराज(द्वितीय) शुद्धाद्वैत मार्तण्ड श्री                                                                                             गिरिधरजी

श्रीगिरिधरजी महाराज का जीवन परिचय
(
जिन्होने श्रीमुकुन्दरायजी काशी में पधराये)

 

आज से लगभग दो सौ वर्ष से पूर्व मि. पौष कृष्ण तृतीया विक्रम सम्वत् 1847 को हमारे श्रीगिरिधरजी महाराज ने श्रीगुसाईंजी के षष्ठलालजी श्रीयदुनाथजी की परम्परा में षष्ठगृह काशी में जन्म लिया तथा अपनी विद्धत्ता सेवा परायणता तथा सम्प्रदाय विषयक अगाध जानकारी के बल पर सम्पूर्ण पुष्टि समाज में काशी के घर का नाम प्रकाशित किया। षष्ठगृह काशी के मूल पुरूष श्रीयदुनाथजी का प्राकट्य मि. चैत्र शुक्ल 6 वि0 सं0 1615 को हुआ था। उनके तृतीय पुत्र श्रीजगन्नाथजी (प्राकट्य मि. श्रावण शुक्ल 2 वि0 सं0 1642) ने षष्ठगृह की प्रथम शाखा से श्री चिम्मनजी को गोद लिया उनको 4 बालक हुए जिसमें 2 का वंश नहीं चला। तृतीय पुत्र श्रीपुरुषोत्तमजी के एक पुत्र श्रीयदुनाथजी हुए तदन्तर वंशगुप्त हो गया। चतुर्थ श्रीकल्याणरायजी का जन्म मि. भादो सुदी 8 वि0 सं0 1704 को हुआ। श्रीकल्याणरायजी के 3 बालक हुए जिनमें द्वितीय एवं तृतीय बालकों का वंश नहीं चला, प्रथम श्रीगिरिधरजी बड़े जिनका प्राकट्य वैशाख सुदी 1 वि0 सं0 1737 को हुआ, उनको चार बालक हुए जिसमें प्रथम श्रीजीवनजी महाराज का प्राकट्य मि.माघ सुदी 15 वि0 सं0 1775 को हुआ जिन्होंने श्रीगोपाललालजी को कामवन से काशीं पधराया। शेष 3 बालकों का वंश भी आगे नहीं चला। श्रीजीवनजी महाराज ने षष्ठगृह की द्वितीय परम्परा से श्रीगोपालजी महाराज (प्राकट्य मि. मार्गशीर्ष शुक्ल 15 वि0 सं0 1890) को गोद लिया। इन्हीं श्रीगोपालजी महाराज के गृह में अ.सौ.गौ. श्रीमती कृष्णावती बहूजी से श्रीगिरिधरजी महाराज का प्राकट्य मि. पौष कृष्ण 3 वि0 सं0 1847 को हुआ। श्रीगिरिधरजी महाराज रचित अपने मूलपुरुष श्रीयदुनाथजी से लेकर अपने पितृचरण तक के वन्दना श्लोकों से स्पष्ट होता है कि श्रीयदुनाथजी के प्रथम बालक श्रीमधुसूदनजी की वंश परम्परा में ही उनका प्रागटय हुआ है।

श्रीगिरिधरजी महाराज के समस्त वैदिक संस्कार जैसे यज्ञोपवीत, वेदारम्भ, विद्याभ्यास इत्यादि काशी में यथा समय संपन्न हुए। काशी के सुप्रसिद्ध बालाजी प्रभृति मूर्धन्य विद्वानों के द्वारा आपश्री ने समस्त वेदवेदांगों, न्याय, व्याकरण आदिकी अतिशीघ्र शिक्षा प्राप्तकर सम्पूर्ण रूप से विद्धत्ता प्राप्त किया। विक्रम संवत् 1880 में आप श्रीनाथद्वारा पधारे तो आपश्री को विद्याध्ययन की विशेष प्रेरणा श्रीयोगीगोपेश्वरजी से भी प्राप्त हुई थी। श्रीमद्धल्लभाचार्य प्रवर्तित पुष्टिमार्ग के सिद्धान्तों, मान्यताओं एवं इतिहास के अत्यन्त गूढ़ रहस्यों को भी आपश्री ने अत्यन्त गहन अध्ययन के माध्यम से हृदयंगम किया एवं पूर्णरूप से उपरोक्त सभी विधाओं में अत्यन्त दक्षता प्राप्त किया। आपने श्रीद्वारकेशजी महाराज से दीक्षा प्राप्त किया। आपने विष्णुस्वामी परम्परा के अनुसार श्रीमद्धल्लभाचार्यचरण द्वारा मान्य गोपालोपासना की, एवं गोपालमन्त्र को भी सिद्ध किया। जिसकी दीक्षा कालान्तर में आपने श्रीनाथद्वारा के तिलकायित श्रीदाऊजी महाराज द्वितीय को दिया।

आपश्री का सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रन्थ शुद्धाद्वैतमार्तंड ही माना जाता है। जिसके रचयिता के रूप में आपश्री को शुद्धाद्वैतमार्तंड श्रीगिरिधरजी कहा जाने लगा। श्रीगिरिधरजी महाराज को तीन बहूजी थीं। उनको दो बेटियाँ हुई। जिनमें एक पुत्री को प्रदेश भ्रमण करते समय सिंह उठा ले गया था। इनकी दूसरी बेटीजी श्रीश्यामाबेटीजी षष्ठपीठ की उत्तराधिकारिणी हुई। जो अत्यन्त प्रतापी, विदुषी एवं कुशल प्रशासक थीं। श्रीश्यामाबेटीजी ने अनेक वर्षों तक षष्ठपीठ काशी की गतिविधियों का अत्यन्त कुशलतापूर्वक संचालन किया, उनकी तीन पुत्रियाँ थीं। जिनमें सबसे छोटी पुत्री का विवाह श्रीयदुनाथजी के ही वंशज मथुरा के श्रीकल्याणरायजी से हुआ। जिनके 3 बालक श्रीगोपाललालजी, श्रीजीवनलालजी एंव श्रीबालकृष्णजी हुए। श्रीगोपाललालजी मथुरा गृह के अधिपति हुए। श्रीबालकृष्णजी तृतीय गृह कांकरोली में गोद गये।

‘शुद्धाद्वैतमार्तंड’ श्रीगिरिधरजी महाराज की महत्ता के प्रतिपादन के लिए तत्कालीन ग्रंथों में भी प्रभूत मात्रा में साक्ष्य उपलब्ध है। इस सम्बन्ध में श्रीगिरिधरलालजी महाराज कांकरौली वाले के 120 वचनामृत में संख्या तीस से उद्धृत निम्नलिखित उद्धरण उल्लेखनीय हैः-

’’अब के समय में काशीवारे श्रीगिरिधरजी सरीखे पण्डित नहीं सुने हैं।’’

इसके पश्चात् श्रीगिरिधरजी महाराज ने लिखा है कि रामानुज सम्प्रदाय के अनुयायी रीवाँ नरेश के पण्डितों ने जब श्रीगोकुलनाथजी के तीलकायत श्रीलक्ष्मणजी महाराज को निरूत्तर कर दिया था, तब काशी के श्रीगिरिधिरजी महाराज ही थे, जिन्होंने श्रीरामकृष्णशास्त्री को साथ लेकर रीवाँ पधारकर उनके समस्त पण्डितों को शास्त्रार्थ में पराजित किया जिससे प्रभावित होकर, तत्कालीन रीवाँ नरेश भी श्रीगिरिधरजी महाराज की शरण आए, लेकिन आपश्री इतने उदार थे तथा आपके विचार इतने महान् थे कि आपने रीवाँ नरेश से यही कहा कि रामानुज सम्प्रदाय के अनुयायी होने से तुम भी वैष्णव ही हो। अतएव शरण लिए को दोबारा शरण लेने की कोई आवष्यकता नहीं है। उस सम्प्रदाय में और हमारे सम्प्रदाय में विशेष भिन्नता नहीं है।

श्रीगिरिधरलालजी महाराज ने आगे लिखा है कि काशीवाले श्रीगिरिधरजी महाराज परम प्रतापी थे। उन्होंने अनेक ग्रन्थ श्रुति रहस्यादि किये और उन्होंने काशी का डंका सर्वत्र बजाया है, वे तत्कालीन पुष्टि जगत् में पताका स्वरूप थे।

वचनामृत संख्या 95 में श्रीगिरिधरलालजी पुनः लिखते हैं कि श्रीगिरिधरजी महाराज काशीवालों को मानसी सेवा स्वतः सिद्ध थी। आपश्री ने निरन्तर सोलह मास तक प्रतिदिन रात्रि के पिछले प्रहर से सूर्योदय तक कटिपर्यन्त जल में रहकर एक काँच हाथ में लेकर एक हाथ में माला लेकर गोपालमन्त्र का पुरच्श्रण किया सो वह काँच ऐसा सिद्ध हुआ कि उसमें श्रीनाथजी के दर्शन समय-समय के तथा ऋतु अनुसार जो भी मनोरथ होते, उन सभी मनोरथों के दर्शन स्वकीय वैष्णवों को कराया करते थे।

वचनामृत संख्या 95 में ही उल्लिखित है कि श्रीगिरिधिरजी महाराज पुष्टिमार्ग के सूर्यरूप थे। सातो स्वरूपों को लेकर के उनकी छप्पन भोग आरोगाने की बहुत इच्छा थी। लेकिन पूर्ण न हो सकी एवं श्रीजी द्वार में ही वि.सं. 1898 के लगभग मार्ग.शु. 6 को आपश्री लीला में प्रविष्ट हुए।

काशी के वैष्णव समाज के लिए ही नहीं समस्त पूर्वांचल के प्रति हमारे श्रीगिरिधरजी महाराज की यह महान देन है कि उन्होंने श्रीनाथजी की गोद में जो स्वरूप विराजते थे उनमें सबसे महान् निधि श्रीमुकुन्दरायजी को अपने पाण्डित्य के परम प्रताप से नाथद्वारा के तत्कालीन तिलकायित श्रीदाऊजी महाराज से आज्ञा प्राप्तकर उनकी बहूजी श्रीमहालक्ष्मीजी द्वारा प्राप्त किया एवं बड़े धूमधाम से उनको काशी में पधराकर श्रीगोपालमंदिर की हवेली में पाट बैठाकर उनकी सेवा के प्रकार का विस्तार किया, जो परम्परा काशी के घर में अब तक अविच्छिन्न एवं अक्षुण्ण रूप से चली आ रही है। श्रीगिरिधरजी महाराज के जीवनकाल में षष्ठगृह काशी को षष्ठनिधि के रूप में, श्रीमुकुन्दरायजी की प्राप्ति एवं षष्ठपीठ के अधिकार एवं हटरी की आरती, पालकी का अधिकार प्राप्त हुआ, इसका भी एक विलक्षण इतिहास है।

श्रीगिरिधरजी महाराज इतने प्रकांड विद्वान एवं प्रत्युत्पन्नमति थे कि देश के अन्यान्य गो. बालकों को जब भी सेवा सिद्धान्त इत्यादि के विषय  में कोई शंका उत्पन्न होती थी तो वे तुरन्त उनका समाधान कर दिया करते थे। श्रीनाथद्वारा वे प्रायः पधारते रहते थे। तत्कालीन तिलकायित श्रीदाऊजी महाराज भी उनसे अत्यधिक प्रभावित थे। वे समय-समय पर उनसे अपनी जिज्ञासा प्रगट करते रहते थे जिसका समाधान श्रीगिरिधरजी महाराज तुरन्त कर दिया करते थे जैसा कि पहले लिखा जा चुका है कि तिलकायितश्री ने वि.सं. 1879 की माघशुक्ल पूर्णिमा को चन्द्रग्रहण के अवसर पर गोपालमन्त्र की दीक्षा श्रीगिरिधरजी महाराज से लिया था। श्रीगिरिधरजी महाराज को इस बात का बड़ा दुःख था कि श्रीनाथजी के घर में प्रथम पीठ से लेकर पंचम पीठ तक एवं सप्तम पीठ की पालकी पधारती थी एवं उनको हटरी की आरती का अधिकार प्राप्त था लेकिन श्रीगुसांईजी द्वारा अपने सात बालकों में बंटवारा के समय उनके षष्ठ बालक श्रीयदुनाथजी को कोई स्वरूप न मिलने के कारण सैकड़ों वर्षों से श्रीनाथजी के घर में षष्ठपीठ का स्थान रिक्त चला आ रहा था। वि.सं. 1879 में तिलकायितश्री द्वारा सात स्वरूपों के उत्सव पर श्रीगिरिधरजी महाराज अत्यन्त उदास थे। वहाँ पर उपस्थित अन्यान्य आचार्य बालकों ने उनसे प्रश्न किया कि अलौकिक आनन्द के समय आप उदास क्यों है? इस पर आपश्री ने उत्तर दिया कि श्रीजी के घर में हमारे बड़े लोगों का (षष्ठलालजी यदुनाथजी) का कोई नाम नहीं है, न हटरी की आरती, न पालकी। श्रीगुसाईजी के समय में षष्ठपीठ षष्ठनिधि का जो कार्य अवषिश्ट रह गया था उसके पूर्ति का समय आ गया था। तिलकायितश्री को श्रीगिरिधरजी महाराज के द्वारा गोपालमन्त्र की दीक्षा दिये जाने के पश्चात् जब गुरूदक्षिणा का प्रश्न उपस्थित हुआ और तिलकायितश्री ने उनसे गुरूदक्षिणा के विषय में प्रश्न किया तो श्री श्रीगिरिधरजी ने उनसे तुरन्त कहा कि जो हम मागेंगे वह आपसे दिया नहीं जाएगा पर तिलकायित दाउजी महाराज (जो बड़े ही उदारमन चरित्र के नायक रहे) ने कहा आप जो भी मांगेंगे हम वचनपूर्वक कहते है वही दियो जायेगो ।तब आपश्री ने कहा कि हमको श्रीनाथजी के घर में श्रीयदुनाथजी के घर में ठाकुर, उनकी हटरी की आरती एवं पालकी के साथ षष्ठनिधि के रूप में पधारे यही मांगना है क्योंकि षष्ठगृहाधिपति श्रीयदुनाथजी के घर का यहाँ कुछ भी नाम नहीं है यही तापक्लेश और विरह सबसे ज्यादा है। वहीं पर श्रीदाऊजी महाराज को यह आभास व भगवत् प्रेरणा भी हो गई कि ये श्रीगिरिधरजी महाराज साक्षात् श्रीयदुनाथजी महाराज के स्वरूप हैं और अब षष्ठगृह की पालकी पधराने, हटरी की आरती तथा षष्ठनिधि के रूप में श्रीमुकुन्दरायजी को पधराने का उचित समय शायद श्रीजी की इच्छा से हो गया है। कुछ ऊहापोह के बाद अन्ततोगत्वा ति. श्रीदाऊजी महाराज ने सहर्श षष्ठनिधि श्रीमुकुन्दरायजी को पधारने का वचन दिया। लेकिन श्रीगिरिधरजी महाराज तो कालद्रष्टा थे वे इतने पर भी संतुष्ट नहीं थे। आपश्री ने विनती करी कि आपके वचन तो सत्य संकल्प के समान है परन्तु भविष्य को कोई नहीं जानता, अतः आप इसे लिखित रूप में प्रदान कर दे तो बड़ी कृपा होगी। श्रीदाऊजी महाराज ने वि.सं. 1880 आश्विन सुदी 6 को लिखित दस्तावेज षष्ठनिधि श्रीमुकुन्दरायजी के पधराने का श्रीगिरिधरजी महाराज को प्रदान किया। साथ में श्रीजी के वेणूजी व आचार्यचरण के हस्ताक्षर भी प्रदान कर दिये और श्री नवनीतप्रियाजी के वारा के श्रृंगार एवं हटरी की आरती का अधिकार भी लिखित रूप से प्रदान किया। इसके पश्चात श्रीगिरिधरजी महाराज अत्यन्त प्रसन्न हृदय से काशी पधारे और श्रीजी के वेणूजी और आचार्यचरण के हस्ताक्षर श्रीगोपाललाजी पास पधराये। श्रीगोपाललालजी के मंदिर के ठीक बगल में श्रीमुकुन्दरायजी के मन्दिर का निर्माण प्रारम्भ किया। इधर श्रीदाऊजी महाराज का गोकुल में लीलाप्रवेश हो गया। उनके लीलाप्रवेश के पश्चात् उनकी बहूजी ने आपको सन्देश देकर श्रीजी द्वार बुलाया। उल्लेखनीय है कि तिलकायितश्री की श्रीलक्ष्मी बहूजी एवं श्रीगिरिधरजी की बहूजी बहनें थी। श्रीगिरिधरजी ने श्रीलक्ष्मीजी बहूजीमहाराज से पूछा कि श्रीदाऊजी महाराज ने श्रीमुकुन्दरायजी को पधराने का एवं षष्ठपीठ का अधिकार देने के विषय में दस्तावेज लिखा है। यह आपके संज्ञान में है? तब तिलकायितश्री के बहूजी ने कहा-हम जाने हैं तदनन्तर श्रीगिरिधरजी महाराज ने विनति किया कि इस विषय में आप भी हमें एक साक्षी पत्र लिख दे तो ठीक रहेगा। श्रीबहूजी महाराज ने अपने तरफ से पुनः एक पत्र लिखवाया जिसमें षष्ठनिधि श्रीमुकुन्दरायजी की पालकी पधराने की विधि क्रम तथा श्रीजी के पास विराजने का स्थान छठे घर की हठरी की आरती आदि सम्पूर्ण विधिपूर्वक लिख दिया। साक्षी में अनेक गोस्वामी बालकों तथा श्रीनाथजी के अधिकारी ने भी हस्ताक्षर किया। इस लेख पत्र के अनुसार वि0 सं0 1885 की कार्तिक सु0 1 को श्रीमुकुन्दरायजी एवं श्रीअनन्तशेषजी श्रीजी के साथ राजभोग आरोग कर श्रीनाथद्वारा प्रीतम पोल स्थित अपने मन्दिर में अत्यन्त धूमधाम से पधारे। वहाँ से पुनः श्रीबहूजी महाराज के आमन्त्रण पर श्रीनाथजी के साथ षष्ठनिधि के रूप में अन्नकूट आरोगने के लिए पधारें। अन्नकूट आरोग कर पुनः आप अपने नाथद्वारा स्थित मन्दिर में पधारे और पूरे लावलस्कर से मार्ग के स्थानों को सनाथ करते हुए लगभग चार मास में काशी पधारें। वि0 सं0 1885 की माघ शुक्ल 4 को काशी स्थित श्रीगोपालमन्दिर में आपश्री का पाटोत्सव सम्पन्न हुआ।

श्रीयमुनाष्टक में भी श्रीआचार्यचरण ने श्रीमुकुन्दरायजी का तीन-तीन बार ‘‘मुकुन्दरतिवर्धिनी’’, ‘‘मुररिपोः मुकुन्दप्रिये’’ तथा ‘‘भवति वै मुकुन्देरतिः’’ आदि शब्दों से स्तवन किया है। जिससे श्रीमुकुन्दरायजी का महत्व स्वयं प्रतिपादित है। अपनी पृथ्वी परिक्रमा के समय में श्रीआचार्यचरण ने अनेकानेक वैष्णवजनों को श्रीमुकुन्दरायजी के सन्निधान में ब्रह्मसम्बन्ध कराया था

श्रीगिरिधरजी महाराज का प्राकट्य श्रीयदुनाथजी का ही था। तिलकायित श्रीदाऊजी महाराज, जिन्होंने आपश्री को श्रीमुकुन्दरायजी जैसी निधि प्रदान किया, उन्होंने स्वयं अपने मुख से आज्ञा किया कि आप स्वयं श्रीयदुनाथजी के अवतार हो। आप अपने हिस्से में श्रीमुकुन्दरायजी को लिए बिना पिण्ड नहीं छोड़ेंगे।’

श्रीमुकुन्दरायजी के काशी पधारने के पश्चात् पुनः वि0 सं0 1893 में षष्ठपीठाधीश्वर श्रीगिरिधरजी महाराज ने षष्ठनिधि श्रीमुकुन्दरायजी को नाथद्वारा पधराया। जहाँ पर मि. कार्तिक शुक्ल 10 वि0 सं0 1893 को श्रीनाथद्वारा में सम्पन्न चार स्वरूपों के उत्सव में भी श्रीमुकुन्दरायजी पधारे। इस उत्सव में श्रीनाथजी के साथ ही श्रीनवनीतप्रियाजी, श्रीविठ्ठलनाथजी, श्रीद्वारिकाधीशजी, श्रीमुकुन्दरायजी सम्मिलित हुए और बड़े ही आनन्द के साथ उत्सव सम्पन्न हुआ।

श्रीगिरिधरजी महाराज के संरक्षण में अनेकानेक मूर्धन्य विद्धज्जनों का लेखन कार्य समस्त चर्चा आदि का कार्य चलता रहता था। इस प्रकार श्रीगिरिधरजी महाराज ने अनेक ग्रन्थों की रचनायें किया। जिसमें श्रीमद्धल्लभाचार्यचरण के शुद्धाद्वैत के सिद्धान्तों के विस्तारपूर्वक व्याख्या के लिए ‘‘शुद्धाद्वैतमार्तंड’’ नामक ग्रन्थ का प्रमुख स्थान है। इस ग्रन्थ की संस्कृत विद्धत्तापूर्ण टीका सागरस्थ नेतोपनामक श्रीरामकृष्ण भट्ट ने किया है। तथा परिष्कार भी इन्होंने ही लिखा है। वर्तमान षष्ठपीठाधीश्वर गो. 108 श्रीश्याममनोहरजी महाराज द्वारा ‘‘शुद्धाद्वैतमार्तंड’’ ग्रन्थ की सरल हिन्दी व्याख्या के साथ प्रकाशित हो चुकी हैं।

श्रीगिरिधरजी महाराज को कोई बालक न होने से उनकी पुत्री श्रीश्यामाबेटीजी ने अत्यन्त कुशलतापूर्वक  षष्ठपीठ के समस्त उत्तरदायित्यव को सम्भाला एवं उन्होंने अपने दौहित्र श्रीजीवनलालजी महाराज (मथुरा के श्रीकल्याणरायजी महाराज के बालक) को षष्ठगृह की द्वितीय परंपरा से षष्ठपीठ काशी के आचार्यपद पर तिलक करके अभिक्त किया।

विक्रम संवत 1929 के चैत्र मास में श्रीजीवनलालजी के यज्ञोपवीत के अवसर पर अनेकानेक बृहद्मनोरथों के साथ छप्पन भोग का आयोजन किया।