श्रीयदुनाथजी का जीवन चरित्र

षष्ठलालजी श्री यदुनाथजी

सनातन अवतार परम्परा में वि0 सं0 1535 में महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्यचरण का प्राकट्य हुआ। आपश्री साक्षात् भगवन्मुखावतार हैं। आपके द्वितीय कुमार भगवान् श्रीविठ्ठलेशावतार श्रीगुसाईं श्रीविठ्ठलनाथजी का प्राकट्य वि0 सं0 1572 में हुआ। आपश्री को सात पुत्ररत्नों की प्राप्ति हुई। आपके सातों पुत्रों में सबसे बड़े श्रीगिरिधरजी धर्मीस्वरूप भगवद् अवतार हुए एवं कनिष्ठ छः पुत्र क्रमशः ऐश्वर्य, वीर्य, यश, श्री, ज्ञान, और वैराग्य स्वरूप भगवद् धर्म के अवतार हुए।

श्रीविठ्ठलनाथजी श्रीगुसाईंजी के सात पुत्रों में हमारे चरित्रनायक षष्ठकुमार गो0 श्रीयदुनाथजी ‘‘षष्ठलालजी’’ हैं, जो कि भगवान् के ज्ञानस्वरूप के अवतार हुए। श्रीगुसाईंजी आपश्री को महाराजजी कहकर भी सम्बोधित करते थे। अतः आपका उपनाम महाराजजी भी है।

गो0 श्रीयदुनाथजी ‘‘षष्ठलालजी’’ का प्राकट्य वि0 सं0 1615 मि0 चैत्र शु0 6 रविवार को प्रयाग के निकट स्थित देवरख अलर्कपुर (अड़ैल) ग्राम में स्थित श्रीवल्लभाचार्यचरण की निजगृहकी बैठक में हुआ।

बाल्यकाल से ही आपके अन्दर सहज ज्ञान की स्थिति विद्यमान थी। आपश्री की बालसुलभ चेष्टाओं, बाल-लीलाओं में भी ज्ञान का गाम्भीर्य स्पष्टतः परिलक्षित होता था। आपश्री का विद्याध्ययन प्राचीन गुरु-शिष्य परम्परानुसार ही ठोस रूप से सम्पादित हुआ। आपश्री का यज्ञोपवीत संस्कार वि0 सं0 1630 के लगभग श्रीमद्गोकुल में ही आनन्दपूर्वक हुआ। आपकी बहूजी का नाम सौ. श्रीमहारानी बहूजी है।

श्रीवल्लभसम्प्रदाय में षष्ठगृह की परम्परा षष्ठलालजी गो0 श्रीयदुनाथजी से ही प्रारम्भ होती है। आपके पितृचरण श्रीगुसाईंजी ने अपने सातों पुत्रों का बंटवारा करने का जब निश्चय किया। तब षष्ठलालजी श्रीयदुनाथ ने अपने भाग के स्वरूप के रूप में श्रीबालकृष्णजी के स्वरूप को स्वीकार नहीं किया। तब तृतीय लालजी श्रीबालकृष्णजी ने उन श्रीबालकृष्णजी के स्वरूप को अपने यहां विराजमान तृतीय निधि स्वरूप श्रीद्वारिकाधीशजी की गोद के स्वरूप के स्थान पर विराजमान करने के लिये श्रीगुसाईंजी से मांग लिया। तब से ही श्रीबालकृष्णजी श्रीद्वारिकाधीशजी के गोद के स्वरूप ही कहे जाते हैं न की षष्ठ स्वरूप। कालान्तर में ये ही श्रीबालकृष्णजी के स्वरूप बलपूर्वक सूरत पधरा लिये गये, जो आजतक वहीं पर (तृतीय गृह के उपग्रह में) विराजमान हैं। परन्तु आज भी श्रीद्वारिकाधीशजी की गोद में भावात्मक स्वरूप से श्रीबालकृष्णजी नित्य प्रति विराजमान हैं और रहेंगे भी, क्योंकि श्रीबालकृष्णजी अपनी निजेच्छा से तो वहीं पर विराजे थे। इस प्रकार श्रीगुसाईंजी के समय षष्ठलालजी श्रीयदुनाथजी को कोई श्री पृथक् स्वरूप बंटवारे में प्राप्त नहीं हुए तथा षष्ठगृह का भी पृथक्करण नहीं हुआ।

आपश्री का जीवन पूरा संघर्षमय रहा। आपने अपने जीवन में भगवत्सेवा को ही सर्वोच्च स्थान प्रदान किया। वैसे तो आपका अपने समग्र भ्राताओं के साथ स्नेह था परन्तु तृतीय लालजी श्रीबालकृष्णजी के साथ आपका अत्यन्त घनिष्ठ स्नेह बाल्यकाल से ही रहा। अतः आपने उन्हीं के साथ तृतीय गृह में ही विराजकर तृतीय निधि स्वरूप श्रीद्वारिकाधीशजी की ही सेवा करने का निश्चय किया।

श्रीविठ्ठलनाथजी श्रीगुसाईंजी के समय जो सातों बालकों का विभाग हुआ था तब षष्ठलालजी श्रीयदुनाथजी का विभाग ही नहीं हुआ था। अतः आपका रहन-सहन आदि सब तृतीय लालजी श्रीबालकृष्णजी के साथ ही होता रहा। यहां तक कि आपने आजीवन उन्हीं के भाग में प्राप्त तृतीय निधि स्वरूप श्रीद्वारिकाधीशजी की सेवा करी। किन्तु अपने षष्ठगृह का पृथक्करण न होने से तथा पृथक् स्वरूप की प्राप्ति भी नहीं होने से आपके चित्त में निरन्तर विरह होता रहता था। श्रीगुसाईंजी के समय में प्रथम लालजी श्रीगिरिधरजी के मनोरथ से जब सप्तस्वरूपोत्सव का मनोरथ हुआ तब षष्ठलालजी श्रीयदुनाथजी उस उत्सव में सम्मिलित नहीं हुए। परन्तु बाद में श्रीगुसाईंजी ने अपने शिष्य राजा आसकरनजी को अपने षष्ठपुत्र श्रीयदुनाथजी को समझाकर बुला लाने को भेजा तब केवल श्रीगुसाईंजी की आज्ञा पालन हेतु आपश्री पधारे तो अवश्य, किन्तु पृथक् स्वरूप प्राप्ति न होने से आपका असन्तोष दूर नहीं हुआ। इस घटना से अत्यन्त स्पष्ट हो जाता है कि श्रीगुसाईंजी के काल में षष्ठगृह या षष्ठ स्वरूप का बंटवारा सर्वथा नहीं ही हुआ था। यदि हुआ होता तो श्रीयदुनाथजी भी अपने षष्ठस्वरूप को पधराकर उस उत्सव में पूर्णरूप से आनन्दपूर्वक अवश्य ही सम्मिलित होते।

श्रीयदुनाथजी बड़े विद्वान् आचार्य थे। आपश्री परम सेवा रसिक होने के साथ-साथ अति गम्भीर थे। अपने हृदय की व्यथा प्रकट नहीं होने देते थे। भक्तियोग आपकों साक्षात् सिद्ध था। आपश्री ने अपना सम्पूर्ण जीवन पृथक् स्वरूप की प्राप्ति न होने से निज स्वरूप’ की प्राप्ति की अभिलाषा में उन्हीं अभीष्ट स्वरूप’ के विप्रयोग में ही व्यतीत किया। ‘‘विरहानुभवैकार्थ सर्वत्यागोपदेश कः’’ यह श्रीवल्लभाचार्यचरण का स्वरूप आपश्री में प्रत्यक्ष फलित होता है। इसी विरह ताप का परिणाम था कि आपश्री के लीलाप्रवेश के तकरीबन अढ़ाई सौ वर्ष के पश्चात् आपके ही वंश के आचार्य श्रीगिरिधरजी महाराज काशी वालों को षष्ठलालजी श्रीयदुनाथजी की ही आड़ी से श्रीमुकुन्दप्रभु सेवा अंगीकार करते हैं।

वस्तुतः श्रीगुसाईंजी तो जानते ही थे कि षष्ठलालजी श्रीयदुनाथजी की आसक्ति ‘‘श्यामत्वं निजशोभया परवपुर्ध्यानेन यद्गौरतां’’ ऐसे श्रीवल्लभाचार्यचरण के निजस्वरूप श्रीमुकुन्दप्रभु में ही है। परन्तु यावत् काल पर्यन्त भगवदिच्छित विप्रयोग श्रीयदुनाथजी को एवं आपके वंश को प्राप्त होना था यावत् काल पर्यन्त श्रीमुकुन्दप्रभु आपको या आपके वंश को प्राप्त नहीं हुए। इस तरह उस भगवत्प्रदत्त विप्रयोग काल का जब समापन हुआ तो श्रीगुसाईंजी के प्रधान गृह से ही श्रीगुसाईंजी के ही अवतार स्वरूप तिलकायित श्रीदाऊजी महाराज द्वितीय ने श्रीयदुनाथजी के वंश में प्रकट उन्हीं के अवतार स्वरूप शुद्धाद्वैतमार्तंड श्रीगिरिधरजी महाराज को (श्रीयदुनाथजी एवं श्रीगुसाईंजी उभयाचार्यों द्वारा इच्छित) षष्ठ स्वरूपत्वेन श्रीमुकुन्दरायप्रभु को षष्ठगृह के सम्पूर्ण, (हटड़ी की महाराजजी की आड़ी की आरती, पालकी) अधिकार के साथ पधराकर श्रीगुसाईंजी के अवशिष्ट ‘‘बंटवारे’’ के कार्य को पूर्ण किया एवं श्रीगिरिधरजी महाराज ने भी सहर्ष इस ‘‘बंटवारे’’ को स्वीकार करते हुए श्रीयदुनाथजी के अवशिष्ट प्राप्याधिकार को पूर्ण किया।

षष्ठलालजी श्रीयदुनाथजी का जीवन चरित्र अपने आपमें एक जीवन दर्शन है, साक्षात् भगवल्लीला का अनुभव है, जो भगवल्लीला के नित्यत्व, एकत्व में निहित अनेकत्व, अनवरतत्व, कालाद्यनवच्छिन्नत्व, लोकवत्व में अलौकिकत्व आदि अनेकानेक प्रकारों को प्रकट करता है। जिस प्रकार कुमारिकाओं के प्रसंग में ‘‘मयेमारंस्यथ क्षपा’’ तथा ‘‘व्रजे गोप्यो भविष्यथ’’ इत्यादि प्रमाणों से स्पष्ट होता है कि उन व्रजगोपियों के साथ रमण करने के लिये ही भगवान् परब्रह्म ने सारस्वत कल्प में प्रकट होकर उन भक्तों की अभिलाषा को पूर्ण किया था। उसी तरह षष्ठलालजी श्रीयदुनाथजी को स्वरूप न पधराने से षष्ठगृह के बंटवारे का कार्य जो अवशिष्ट रहा था उसे ही पूर्ण करने के लिये श्रीगुसाईंजी ने तिलकायित श्रीदाऊजी महाराज द्वितीय के रूप में पुनः प्राकट्य ग्रहण करके उस लीला को सम्पन्न किया।

षष्ठलालजी श्रीयदुनाथजी का उत्सव चैत्र शु0 6 को आता है। यही दिवस श्रीयमुनाजी के उत्सव ‘‘श्रीयमुनाछठ ’’ के नाम से भी प्रसिद्ध है। श्रीयदुनाथजी का लीला भावना में श्रीयमुनाजी का ही स्वरूप है और श्रीयमुनाजी श्रीमुकुन्दरायप्रभु के बिना कैसे विराज सकती हैं। श्रीयदुनाथजी का स्वरूप तो साक्षात् ‘‘श्रीमुकुन्दरतिवर्धिनी’’ स्वरूप है। इसीलिये जब श्रीगुसाईंजी ने श्रीयदुनाथजी को ठाकुरजी श्रीबालकृष्णजी, जो की ‘‘पूतना वध लीला’’ के स्वरूप हैं पधराने का विचार किया तब षष्ठलालजी श्रीयदुनाथजी ने स्वीकार नहीं किया, कारण आपश्री की ‘‘रति’’ तो श्रीमुकुन्दप्रभु में रही। परन्तु इस गूढ़ रति को आप प्रकट करना भी नहीं चाहते थे ‘‘प्रीत हिये में राखिये’’ इसीलिये आपने स्वीकार नहीं किया तथा श्रीगुसाईंजी भी आप सब कुछ जानते हुए भी मौन रहे। उस वक्त सामान्य जन ने यही समझा की इन्होंने अति छोटे स्वरूप होने से स्वीकार नहीं किया है। इस तरह कालान्तर में विप्रयोग का जब सम्यक् परिपाक हो गया तब वे ही दोनों स्वरूप (श्रीगुसाईंजी एवं श्रीयदुनाथजी) पुनः प्रकट हुए और वह लीला सम्पन्न हुई।

पुष्टिमार्ग में षष्ठलालजी श्री यदुनाथजी को चतुर्थ श्रीवल्लभ स्वरूप भी कहा जाता है।

प्रथम श्रीवल्लभाधीश प्रभु स्वयम्।

द्वितीय वल्लभ स्वरूप श्रीविट्ठलनाथजी श्रीगुसाईंजी हुए।

तृतीय वल्लभ स्वरूप चतुर्थलालजी श्रीगोकुलनाथजी हुए।

एवं चतुर्थ वल्लभ स्वरूप षष्ठलालजी श्रीयदुनाथजी हुए।

अतएव परमानन्द दास जी ने अपने पद में लिखा है ‘‘श्रीयदुनाथजी महाप्रभु पूरण भगवान्’’ तात्पर्य यही कि श्रीयदुनाथजी स्वयं श्रीवल्लभाधीश प्रभु का ही प्राकट्य हैं इसीलिये तो षष्ठलालजी श्रीयदुनाथजी ने श्रीबालकृष्णजी के स्वरूप को न पधारकर कालान्तर में अपने ‘‘निजस्वरूप’’ श्रीमुकुन्दप्रभु को ही पुनः अपने ही स्वरूप श्रीगिरिधरजी महाराज ‘‘काशी’’ के माथे पधरवाया।

आपश्री का स्वभाव अत्यन्त कृपालु था। किसी के कष्ट को आप सह नहीं ससते थे। पतित से पतित शरणागत का आप उद्धार करते थे ‘‘पतित उद्धारण महाराज रसना चातक ज्यौं रहाउ’’ (श्रीचतुर्भुजदासजी) आपश्री का घर का नाम महाराज था। श्रीगुसाईंजी प्यार से आपको महाराज कहते थे और इसीलिये आपके बहूजी का नाम भी महारानीजी रखा गया।

श्रीयदुनाथजी आयुर्वेदशास्त्र में भी पारन्गत थे। कई वैष्णव अपने रोग का निदान तथा उपचार भी आपके मार्गदर्शन में करवाते थे। आपश्री स्वभाव से चिन्तनशील एवं गम्भीर होते हुए भी हंसमुख थे। ऐतिहासिक लेखन में आपश्री की विशेष अभिरूचि थी। इतिहास लेखन की कला भी आपश्री में बेजोड़ थी। आपश्री का रचित ऐतिहासिक ग्रन्थ श्रीवल्लभ दिग्विजय प्रसिद्ध है। इस ग्रन्थ का रचानाकाल वि0 सं0 1658 है। कहते हैं कि इस ग्रन्थ का प्रारम्भ प्रयाग संगम के निकट स्थित अलर्कपुर (अड़ैल) में हुआ एवं समापन नर्मदा नदी के तट पर हुआ था। आपश्री ने श्रीवल्लभाचार्यचरण के 84 बैठकों के स्थलों की पदयात्रा भी किया था। आपश्री की वाक्पटुता, एवं निर्णयशक्ति अद्वितीय थी। आपश्री का स्वरूप भव्य था। विशाल ललाट, कमलदल जैसे विशाल नेत्र एवं विशेषतः आप ज्ञानमुद्रा में विराजते थे।

आपश्री विशेषतः श्रीयमुनातट पर ही सन्ध्या-जपादि करने को पधारते थे। कहते हैं कि एकबार श्रीयमुनातट पर श्रीमद्गोकुल में आपश्री विराजमान थे। अपलक दृष्टि से श्रीयमुनाजी को आप निहार रहे थे तभी यकायक भावावेश में आपश्री के नेत्रों से अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी। उसी अवस्था में आपके श्रीमुख से स्वतः ही गान निःसरित हो गया। लगभग एक सहस्त्र पदों से आपश्री ने श्रीयमुनालहरी का गान किया तब श्रीयमुनाजी साक्षात् प्रकट होकर पधारे और साक्षात् आपश्री से श्रीयमुनाजी का मिलन हुआ और फिर आपश्री श्रीयमुनाजी में समाविष्ट हो गयें इस तरह वि0 सं0 1660 के लगभग आपने लीलाप्रवेश किया।

आपश्री की श्रीयमुनाजी में अनिर्वचनीय प्रीति थी। वस्तुतः आप स्वयं वही स्वरूप थे। श्रीयमुनाजी और श्रीमुकुन्दप्रभु का प्रगाढ़ सम्बन्ध श्रीयमुनाष्टक से सम्पूर्ण प्रमाणित है। आपश्री कई बार भावावेश में, चर्चा प्रसंगों में श्रीमधुरेशप्रभु (षष्ठनिधि श्रीमुकुन्दरायजी) एवं श्रीयमुनाजी के कई अलौकिक प्रसंगों की चर्चा निजजनों से करते थे। श्रीयमुनाजी का स्वरूप तो नित्य संयोगिनी का है। षष्ठनिधि श्रीमुकुन्दप्रभु मानों मधुर वृक्ष हैं और श्रीमुकुन्दरतिवर्धिंनी श्रीयमुनाजी मानो माधुरी लता होकर मधुर वृक्ष रूपी अपने स्वामी श्रीमुकुन्द प्रभु से नित्य लिपटी हुई है। तात्पर्य यही कि श्रीमुकुन्द-रतिवर्धिनी श्रीयमुनाजी स्वरूप श्रीषष्ठलालजी श्रीयदुनाथजी का नित्य संयोग तो श्रीमुकुन्दप्रभु से ही था, है, और रहेगा। श्रीयदुनाथजी श्रीमुकुन्दप्रभु के हैं और रहेगें तथा षष्ठनिधि श्रीमुकुन्दरायजी षष्ठलालजी श्रीयदुनाथजी के हैं और रहेंगे। इसमें रंचक मात्र भी सन्देह का अवकाश नहीं ही है।

श्रीयदुनाथजी के पांच लालजी (पुत्र) एवं एक बेटीजी (कन्या) हुई। प्रथम पुत्र श्रीमधुसूदनजी (जन्म वि0 सं0 1634 चै0 शु0 2) द्वितीय पुत्र श्रीरामचन्द्रजी (जन्म वि0 सं0 1638 भा0 शु0 7) तृतीय पुत्र श्रीजगन्नाथजी (जन्म वि0 सं0 1642 श्रा0 शु0 2) चतुर्थ पुत्र श्रीबालकृष्णजी (जन्म वि0 सं0 1644 ज्ये0 शु0 3) पंचम पुत्र श्रीगोपीनाथजी (जन्म वि0 सं0 1647 आश्विन कृ0 3) थे। एवं कन्या का नाम श्रीदमयन्तीजी था। इनमें से क्रमशः श्रीमधुसूदनजी एवं श्रीरामचन्द्रजी का वंश चला। तृतीय लालजी श्रीजगन्नाथजी का वंश षष्ठगृह के प्रथम गृह से श्रीचिम्मनलालजी गोद आये। इस तरह प्रथम तीन पुत्रों का वंश चला। कनिष्ठ दोनों लालजी का वंश नहीं चला। इस प्रकार आपश्री के पाँचों पुत्र भी विशिष्ट प्रतिभासम्पन्न एवं अपने पिता के समान ही सेवा रसिक थे।