जगदगुरू श्रीवल्लभाचार्यमहाप्रभु की तिरासवीं बैठक अड़ैल का पूर्ण परिचय

श्रीगंगा यमुना एवं सरस्वती के परम पवित्र संगम पर स्थित देवरख ग्राम जिसे पुष्टिमार्गीय जन अड़ैल के नाम से जानते हैं, वह पुष्टिमार्ग के प्रणेता महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्यजी के परम पुनीत निवास स्थली एवं कर्म स्थली रही है।

गंगा के परम पावन तट पर स्थित भारत की सांस्कृतिक राजधानी काशी श्रीमद्धल्लभाचार्यचरण की बाल्यावस्था, विवाह संस्कार एवं पत्रावलम्बन शास्त्रार्थ सहित अनेकानेक ग्रन्थों की रचनास्थली एवं आसुरव्यामोह की भी स्थली होने से श्रीवल्लभ की कर्मस्थली कही जाती हैं।

काशी में बाल्यकाल, विद्याध्ययन एवं विवाह संस्कार के पश्चात् आपश्री ने अड़ैल को ही अपना गृह-मूल निवास स्थान बनाया।

यही वह ऐतिहासिक स्थल है जहां अष्टछाप के दूसरे महाकवि परमानन्ददासजी को सर्वप्रथम कपूरक्षत्री जलघडि़या के साथ महाप्रभु के प्रथम दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ था एवं उनके सम्मुख प्रथम पद का गान करते हुए उनके गोद में बैठकर कृष्ण कन्हैया का दर्शन उनको पद सुनाते हुए हुआ था। परमानन्ददासजी को नाम निवेदन एवं दीक्षा संस्कार यहीं पर हुआ था। इस पुनीत स्थल पर वंगप्रदेश से ब्रज जाते समय महाप्रभु चैतन्य यहां ठहरे थे उनकी महाप्रभु से भेंट हुयी एवं चर्चां भी हुयी।

अड़ैल की बैठक में ही प्रारम्भ में श्रीमहाप्रभुजी ने श्रीनवनीतप्रियाजी की सेवा की। यहीं पर उनके प्रथम बालक श्रीगोपीनाथजी का भी प्राकट्य विक्रम संवत् 1568 की आश्विन कृष्ण द्वादशी को हुआ था। चरणाटधाम में विक्रम सम्वत् 1572 की पौषकृष्ण नवमी को गुसाई श्रीविट्ठलनाथजी के प्राकट्य के अनन्तर उनके प्राकट्य अवसर पर प्राप्त परम निधि श्रीविट्ठलनाथजी के स्वरूप के साथ श्रीआचार्यचरण यहीं पर पधारे एवं अनेक वर्षों तक विराजे। श्रीगुसांईंजी ने भी इसी स्थान पर अपनी बाल्यावस्था व्यतीत की, विद्याध्ययन किया एवं विवाह के पश्चात् भी बहुत दिन यहां विराजे। इसी बैठक में श्रीगुसांईंजी  के ज्येष्ठपुत्र श्रीगिरिधरजी से लेकर श्रीयदुनाथजी तक 6 बालकों का प्राकट्य भी हुआ। तब तक आपश्री ने अनेकानेक वर्षों तक श्रीवल्लभाचार्यचरण के उत्तराधिकारी के रूप में अपनी पुष्टिमार्गीय गतिविधियों का संचालन भी किया। बाद में आपने अपना स्थायी निवास व्रज में स्थित श्रीगोकुल को बनाया एवं वहीं से अपनी समस्त गतिविधियों का संचालन करते रहे। लेकिन आपश्री का अड़ैल आना जाना बना रहा।

श्रीवल्लभाचार्यचरण की बैठक अड़ैल की उत्पत्ति एवं मूल उद्गम का यदि विचार करते हैं-जो जब श्रीपाण्डूरंगविट्ठलनाथजी की आपको विवाह करने व गृहस्थाश्रम को अंगीकार करके वंश विस्तार की आज्ञा हुयी तो आपश्री ने उस आज्ञा का पालन किया और काशी पधारकर विवाह करके गृहस्थाश्रम का अंगीकार किया जो इतिहास प्रसिद्ध है।तदनन्तर श्रीगोकुल में बलदेवजी के साथ क्रीड़ा करते हुए श्रीठाकुरजी के दर्शन श्रीमहाप्रभुजी को हुए इससे स्पष्ट हो गया कि अब यथाशीघ्र आपश्री के यहां साक्षात् पूर्णपुरुषोत्तम का बलदाऊ भैया के साथ प्राकट्य अवश्य  ही होगा। इसका प्रमाण निजवार्ता से प्राप्त होता है। आपश्री सर्वप्रथम काशी पधारे। यहीं से अड़ैल बैठक के उद्भव का बीज पड़ा। वैसे आपका विचार काशी में विराजने का रहा। क्योंकि आपश्री की कर्मभूमि काशी रही और आपकी ससुराल भी काशी ही थी तथा विद्धत्समाज आदि भी काशी में ही सहज था। परन्तु कृष्णदेवराजा की सभा में जो आचार्यश्री ने मायावादियों का सम्पूर्ण मुखध्वंस कर दिया था, अतः उस प्रसंग से कुपित कुछ काशीस्थ विद्वान् पुनः आपसे शास्त्रार्थ के लिये उपस्थित हो गये जिनमें मुख्य थें पं0 दिनकर भट्ट, पं0 लक्ष्मण भट्ट, स्वामी नित्यानन्द महाशय, स्वामी चन्द्रशेखर और नीलकण्ठ। इनके साथ विधिवत् शास्त्रार्थ हुआ और श्रीआचार्यचरण ने उपर्युक्त विद्वानों का उत्तमरीति से समाधान भी किया। परन्तु तभी दण्डी उपेन्द्राश्रम और प्रकाशानन्द सरस्वती, ये दोनों मठाधीश मायावादी पण्डिताभिमानी आ पहुंचे और उन्होंने पुनः आक्रोशपूर्ण चर्चा का आरम्भ कर दिया। जब इनको भी आचार्य श्रीमहाप्रभु ने निरूत्तर कर दिया तो इन्होंने वितण्डा करते हुए संन्यास का प्रश्न उपस्थित किया। ‘‘तब विनने कही जो तुमकूँ संन्यास न होय? तब आप ने कही जो हम संन्यास लेके काशी में आयके तुमकूँ संन्यास धर्म बतावेंगे’’

(नि0 वा0 प्र0 33) तदन्तर आपश्री अपने ससुराल गृह में पधारे। वहीं पर विराजकर आपश्री स्वगृहस्थल का अन्वेषण कराते रहे।परन्तु कुछ उदण्ड सन्यासियों के बहकावे में आकर काशी के ही कुछ दुष्ट लोग आचार्य श्रीमहाप्रभुजी से लड़ने की तैयारी करने लगे। तब आचार्यचरण के निज सेवकों ने आपसे विनती किया ‘‘जो महाराज अब कहूं ओर स्थल निश्चय करिकें विराजे तो ठीक, तब आप आज्ञा किये जो हाँ श्रीठाकुरजी कीहूं आज्ञा स्थल करिके विराजवेकी है’’(नि0 वा0 प्र0 33) इसके बाद आपश्री ने प्रयाग पधारने का विचार किया। प्रयाग पधारकर अपने निजसेवकों से आज्ञा किया कुछ दूर एकान्त सुरम्य स्थल का अन्वेषण करें। अन्वेषण करके ‘‘विन सेवकन ने आयकें विनती कीनी जो महाराज अड़ैलगाम उत्तम स्थल है।’’(नि0 वा0 प्र0 33) तब आपश्री वहां पधारे और निजगृह सिद्ध करवा के विराजे तथा सहागत ज्ञाति बन्धुओं के भी गृह निर्माण करवाये गये। तबसे उस अड़ैल गांव का नाम देवर्षि प्रसिद्ध हुआ, जिसे आज देवरख कहा जाता है। ऐतिहासिक घटनाओं के आधार पर विचार किया जावे तो विवाहोपरान्त एवं विजयनगर कनकाभिषेकोपरान्त इस बैठक की स्थापना व उद्गम सिद्ध होता है। आप श्रीआचार्य चरणों का विवाह तो वि0 सं0 1558 में आषाढ़ सुदी पंचमी को हुआ था। किन्तु पत्नी महालक्ष्मीजी (अक्काजी) की अल्पायु होने से गौना आपश्री का वि0 सं0 1533 में हुआ। सम्भवतः अपितु निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि वि0 सं0 1566 अथवा वि0 सं0 1567 का वर्ष इस बैठक की स्थापना का है क्योंकि तदनन्तर त्वरित वि0 सं0 1568 आश्विन कृ0 12 को आपके प्रथम पुत्र श्रीगोपीनाथजी का प्राकट्य हुआ जो कि अड़ैल में ही हुआ है। कुछ इतिहासज्ञ आपश्री का प्राकट्य वि0सं0 1567 भी स्वीकारते हैं, जिसका प्रमाण श्रीद्वारिकेशजी कृत मूलपुरूष से प्राप्त होता है-‘‘संवत् पन्द्रह सडसठ आयो आसो वदि द्वादशी शुभ गायो, श्रीगोपीनाथजी जब जन्म लीनो आयके।’’ इत्यादि

काशी से श्रीमहालक्ष्मीजी को साथ लेकर सिद्धस्थल अड़ैल में पधारकर जब आप विराजे तो भगवत्सेवा भी आपश्री के साथ थी। तब श्रीमुकुन्दरायजी का स्वरूप जो गोविन्दाचार्यजी का सेवित और कालान्तर से अपने काका जनार्दन भट्ट से आपश्री को प्राप्त हुआ था वह तथा साथ में भगवान् श्रीकृष्ण के मुखारविन्द से स्पर्शित शालिग्राम शिला (अनन्त शयनजी) और श्रीमद्भागवत की पुस्तक, श्रीमदनमोहनजी युगल स्वरूप जो आपश्री के बड़ों के वंश परम्परा के स्वरूप थे वो आपकी माताजी दक्षिण से साथ ही पधरा कर लायी थीं तथा दूसरे स्वरूप श्रीगोकुलनाथजी जो ससुराल के पंचायतन के स्वरूप हैं। आपके ससुर मधुमंगल ने पूरा पंचायतन (1) श्रीगोकुलनाथजी (2) श्रीमहादेवजी (3) श्रीसूर्यनारायण (4) भवानी (5) गणेश। अपनी पुत्री को कन्यादान के साथ दे दिया था। जिसमें से युगलस्वरूप श्रीस्वामिनीजी सहित श्रीगोकुलनाथजी को तो आपने सेवा में पधराये और अन्य चारों मूर्तियों का गंगाजी में विसर्जन किया। इसका प्रसंग निजवार्ता में इस तरह प्राप्त है ‘‘जब बिन चार्योन को श्रीगंगाजी में पधराये तब वे चार्यो स्वरूप बोले जो आपही हमको न मानोंगे तब जगत में हमकों कौन मानेगों और हमारी पूजा कौन करेगो? तब श्रीआचार्यजी आप कहे जो हम तुमको प्रस्ताव में अवश्य मानेंगे। तब तुमारो समाधान करेंगे। तब वे बोहोत प्रसन्न भये’’।

इस प्रकार सर्वप्रथम श्रीमुकुन्दरायजी, श्रीमदनमोहनजी एवं श्रीगोकुलनाथजी इन तीनों स्वरूपों को पधराकर श्रीआचार्यजीमहाप्रभु अड़ैल (देवरख) में वास करके भगवत्सेवा में स्थित हुए और अपने निज सेवकों को वचनामृतदान से सुख देने लगे।

श्रीवलभाचार्यजी के अड़ैल में निवास करते हुए वि0 सं0 1568 आश्विन कृ0 12 को श्रीबलदेवस्वरूप प्रथम पुत्र श्रीगोपीनाथजी का प्राकट्य हुआ। उस समय आचार्यचरण ने अपने आयुष्य के बत्तीसवें वर्ष का अंगीकार किया था। आपके द्वितीय पुत्र गुसाईं श्रीविठ्ठलनाथजी का प्राकट्यय वि0 सं0 1562 पौ0 कृ0 9 शुक्रवार के दिन चरणाट (चरणाद्री) में हुआ। उसी समय आपश्री को श्रीविट्ठलेश प्रभु का स्वरूप एक ब्राहा्रण द्वारा प्राप्त भया, तब आपश्री बहुत प्रसन्न हुए और आज्ञा किये कि ‘‘हमारे घर सेव्य सेवक भाव या दोय रीतिसों श्रीठाकुरजी प्रगट भये हैं’’।

श्रीगुसांईंजी  के प्राकट्य निमित्त श्रीमहाप्रभुजी के स्वामिनी स्वरूप श्रीमहालक्ष्मीजी (अक्काजी) के गर्भ स्थिति का विलक्षण प्रसंग भावसिन्धु में प्राप्त होता है जो अड़ैल (प्रयाग) का ही है। अतः स्पष्ट रूप से यह कहा जा सकता है कि श्रीगुसांईंजी  का श्रीअक्काजी के गर्भ में पर्दापण तो अड़ैल में ही हुआ था किन्तु प्राकट्य चरणाट में है-और प्राकटयोपरान्त भी एक मास तक आप चरणाट विराजे। वहां गंगापूजन करके आपश्री सकुटुम्ब पुनः निजगृह अड़ैल पधारे। श्रीगुसांईंजी का भी बाल्यकाल अड़ैल में ही व्यतीत हुआ। श्रीगुसाईंजी को खेलाने के लिये नित्यप्रति श्रीमहादेवजी खिलौना लेकर आते थे और सींगीनाद बजाते नृत्य करते, यह सब देखकर श्रीगुसांईंजी बहुत प्रसन्न होते थे। इसी तरह अन्य श्रीआचार्यजी के निजसेवक भी आपको खेलाते थे तब आपश्री (गुसांईंजी) हाव भाव कटाक्ष द्वारा उन्हें रसदान भी करते थे। यहां पर भी आपश्रीविट्ठलनाथजी ने कटाक्ष द्वारा सहस्त्रावधि जीवों को बाल्यावस्था में अंगीकार किया है। इस समय आचार्यश्री के पास श्रविट्ठलेशप्रभु सहित चार सेव्य स्वरूप विराज रहे थे। श्रीगुसांईंजी  का बाल्याकाल अड़ैल में ही बीता। आपके यज्ञोपवीत के विषय में कुछ मतभेद प्राप्त हैं। ज्यादातर इतिहासकार काशी में स्वीकार करते हैं परन्तु निजवार्ता अड़ैल में कहती है। उपनयनोपरान्त विद्याध्ययन मधुसूदनसरस्वती के पास प्रयाग में सम्पन्न हुआ। और श्रीम्दभागवत का अध्ययन आपश्री ने अपने पितृचरण से अड़ैल में ही किया था। अड़ैल में ही श्रीगुसांईंजी ने अपने पितृचरण श्रीमहाप्रभुजी से श्रीभगवद्गीता पर भाष्य लिखने का आग्रह-विनती किया, तब आपश्री ने आज्ञा किया कि ‘‘जो श्रीगीताजी में 534 भगवद् वाक्य हैं, सो सब प्रमाण हैं और सरल हैं तातें हमने गीताजी पे कोई व्याख्या नहीं कही, परि तुम्हारी इच्छा होय तो तुम करियो  इत्यादि और यहीं पर व्याससूत्र पर अवशिष्ट भाष्य को पूर्ण करने की भी आज्ञा श्रीगुसांईंजी को हुयी थी। श्रीवल्लभाचार्यचरण लगभग पन्द्रह वर्ष तक अड़ैल (देवर्षि) ग्राम में बिराजे। यहीं पर अड़ैल में वि0 सं0 1601 में सोमयाग एवं तदनन्तर श्रीविष्णुमहायाग श्रीगोपीनाथजी ने किये थे तथा श्रीगुसांईंजी  ने प्रथम सोमयाग सम्भवतः वि0 सं0 1592 में अड़ैल में किया था। पुष्टिमार्ग में स्थापित रथयात्रा के उत्सव का शुभारम्भ भी अड़ैल से ही हुआ। श्रीगुसांईंजी के 6 पुत्रों का भी प्राकट्य अड़ैल में ही हुआ और आपश्री के तृतीय लालजी श्रीबालकृष्णजी का उपनयन संस्कार भी अड़ैल में ही हुआ वि0सं0 1614 में, ऐसा कई इतिहासज्ञों का मत है।

श्रीवल्लभाचार्यजी अड़ैल से प्रस्थान करके दक्षिण यात्रा करते हुए ब्रज में पधारे तब आपश्री के हृदय में एक प्रेरणा हुयी कि ‘‘सब स्वरूपन में अधिनायक तो श्रीनवनीतप्रियाजी हैं सो आगरे में बिराजत हैं वे पधारें तो बोहोत आछो’’(नि0 वा0 प्र0 33) श्रीमहाप्रभुजी कुछ समय में गज्जन धावन से श्रीनवनीतप्रियाजी को पधराकर अपने निजगृह अड़ैल में पधारें। वहां श्रीनवनीतप्रियाजी को सिंहासन पर पौ0 कृ0 6 को विराजाया।

अब श्रीवल्लभाचार्यजी के गृह पांच स्वरूप बिराजे। तदनन्तर श्रीद्वारिकानाथजी ठाकुरजी को दामोदरदास संभलवारे के माथे श्रीमहाप्रभुजी ने पधराये थे किन्तु जब वो हरिशरण हुए तो श्रीद्वारिकानाथजी भी अड़ैल आचार्यजी के घर पधारे। अब छः स्वरूप सेवा में बिराजे। श्रीनवनीतप्रियाजी, श्रीविठ्ठलनाथजी, श्रीद्वारिकानाथजी, श्रीगोकुलनाथजी, श्रीमुकुन्दरायजी एवं श्रीमदनमोहनजी ये षट् स्वरूप एक सिंहासन पर अड़ैल में एक साथ विराजते थे।

अड़ैल की बैठक में भगवत्स्वरूपों का जहां तक विराजने का विषय आता है तो इतिहास की दृष्टि से श्रीनवनीतप्रियाजी, श्रीविट्ठलनाथजी, श्रीद्वारिकाधीशजी, श्रीगोकुलनाथजी, श्रीमुकुन्दरायजी एवं श्रीमदनमोहनजी ये षट्स्वरूप एक साथ विराजे हैं। श्रीमथुराधीशजी पद्यनाभदासजी के साथ अड़ैल तो अवश्य पधारे हैं परन्तु अड़ैल बैठक में उक्त स्वरूपों के साथ विराजें हो ऐसा पुष्ट प्रमाण अद्यावधि प्राप्त नहीं है। श्रीगोकुलचन्द्रमाजी तो सम्भवतः अड़ैल ही नहीं पधारें हैं। अतः आपका भी उक्त स्वरूपों के साथ निजगृह की बैठक अड़ैत में एक साथ विराजने का प्रश्न ही नहीं उठता। फिर भी किंवदन्ती ऐसी है कि आठों स्वरूप श्रीनवनीतप्रियाजी, श्रीमथुराधीशजी, श्रीविठ्ठलनाथजी, श्रीद्वारिकाधीशजी, श्रीगोकुलनाथजी, श्रीगोकुलचन्द्रमाजी, श्रीमुकुन्दरायजी एवं श्रीमदनमोहनजी अड़ैल बैठक में विराज चुके हैं। यह विषय अन्वेषण का है।

जब यह सर्वविदित हो गया कि आचार्यश्री का स्थायी निवास अड़ैल हो गया है तो मायावादी विद्वान् वहां भी शास्त्रार्थ के लिये आने लगे जिससे अक्सर आचार्यश्री को सेवा में पधारने में विलम्ब हो जाता था। अतः श्रीनवनीतप्रियीजी ने इलम्मागारूजी से कहा कि आप सेवा में नहाकर उत्थापन भोग पधरावें। तब श्रीमहाप्रभुजी की माताजी ने श्रीठाकुरजी से विनती किया कि मुझे ब्रह्मसम्बन्ध दीक्षा नहीं है। अतः सेवा में आने का अधिकार भी नहीं है। तब श्रीनवनीतप्रियाजी ने कहा कि मेंरी आज्ञा है तुम नहाओं। तब इलम्मागारूजी नहाकर आयी तो श्रीनवनीतप्रियाजी ने उन्हें हाथ में तुलसीदल देकर के ब्रह्मसम्बन्ध करवाया और तुलसी अन्य स्वरूप के चरणारविन्द में समर्पवाया और फिर ब्रहासम्बन्ध की भेंट श्री ठाकुरजी ने मांगा। उस समय उनके कण्ठ में एक मोती की माला थी, वहीं उतार कर श्रीनवनीतप्रियाजी को भेंट किया। इस प्रकार श्रीमहाप्रभुजी के माताजी का ब्रह्मसम्बन्ध यहां पर हुआ। यहां पर एक कुआं भी श्रीनवनीतप्रियाजी की आज्ञा से खोदा गया था जो आज भी प्राचीन जीर्णशीर्ण स्थिति में दक्षिण दिशा में प्राचीर के बाहर विद्यमान है। जिसका सामान्य जीर्णोद्धार भी अभी-अभी हुआ है।

श्रीमहाप्रभुजी एवं श्रीगुसांईंजी के प्रमुख सेवक- 84, 252त्र336 में से कितने सेवक ऐसे हैं जिनका ब्रह्मसम्बन्ध अड़ैल प्रयाग में हुआ है। इस क्रम में प्रथम चैर्यासी वैष्णवान्तर्गत तालिका प्रस्तुत है-

(1) अच्युतदास गौड़ (तीन परिक्रमावाले)

(2) सुतार-श्यामदास

(3) कविराज भाट सनोढि़या ब्राहा्रण एवं उनके दोनों भाई।

(4) परमानन्ददास (अष्टछाप)

(5) गदाधर दास (जलेबी प्रसंग वाले)

(6) दिनकर सेठ

(7) गोपालदास बांसवाड़ा के

(8) पद्यारावल, मावजीपटेल तथा विरजो

(9) जगन्नाथजोशी खेरालु की माताजी

(10) बाबावेणुदास (काशीप्रयाग के मध्य)

(11) आनन्ददास विश्वम्भरदास

(12) सेवकनी ब्राहा्रणी अड़ैल में रहती वा0 सं0 42

(13) सेवकनी क्षत्राणी वा0 सं0 43

(14) डोकरी प्रयाग में रहती सूत कातती वा0 सं0 44

(15) बूलामिश्र वा0 सं0 46

उपर्युक्त समस्त सेवकों की आत्म निवेदन स्थली अड़ैल है।

श्रीविट्ठलनाथजी गुसांईंजी के 252 वैष्णवों में से त्रयोदश वैष्णवों का आत्मनिवेदन अड़ैल में हुआ है। जिसका विवरण निम्नलिखित है-

(1) नागजी भट्ट वा0 सं0 1

(2) रूपचन्दनन्दा वा0 सं0 17

(3) हरिचन्दनन्दा वा0 सं0 17

(4) दयाभवैया तथा स्त्री पुत्र सब सेवक भये वा0 सं0 63

(5) राजाजोत सिंह वा0 सं0 66

(6) स्त्री क्षत्राणी पूरब की वा0 सं0 83

(7) परमानन्द सोनी अड़ैलवासी वा0 सं0 44

(8) स्त्री पुरूष क्षत्री प्रयाग के हीरान की वा0 सं0 105

धरती पहिचानते सो

(9) एक ब्राहा्रणी उपरावाली वा0 सं0 110

(10) मुरारी आचार्य खम्भाइच के वा0 सं0 130

ये स्त्री पुत्र के साथ वैष्णव हुए

(11) गुलाबदास अड़ैल के वा0 सं0 211

(12) एक क्षत्राणी प्रयाग की उपरावाली वा0 सं0 214

(13) यादवेन्द्रदास क्षत्री वा0 सं0 246

उपर्युक्त समस्त वैष्णवों का ब्रह्मसम्बन्ध अड़ैल में ही हुआ। वैसे प्रति व्यक्ति गणना करने पर त्रयोदश से ज्यादा होगी।

श्रीगोकुलनाथजी की भी अलग से यहां पर बैठक है। जिसमें आपने श्रीमद्भागवत सप्ताह भी किया है और एक आगत मायावादी पण्डित को शास्त्रार्थ में निरूत्तर भी किया था। माला तिलक निषेध का मुगल सम्राट जहांगीर ने जब वि0सं0 1674 में आदेश जारी किया तब कई वैष्णव परिवारों ने ब्रज से पलायन किया। इस विकट परिस्थिति का भी गोकुलनाथजी ने धैर्यपूर्वक सामना किया और काश्मीर तक की लम्बी यात्रा करके सम्राट से पुनः इस आदेश को खारिज करवाया। इस तीन साल के अरसे में आपश्री ब्रज से बाहर ही विराजते रहे। इसी दौरान आप अड़ैल में भी तीन मास तक अपने सेव्यनिधि स्वरूप श्रीगोकुलनाथजी को पधराकर विराजे थे। ऐसा श्रीगोकुलनाथजी के जीवन चरित्र से प्रमाणित होता है।

जगदगुरू महाप्रभुश्रीवल्लभाचार्यचरण के ज्येष्ठ कुमार श्रीगोपीनाथजी की सम्पूर्ण भारतवर्ष में एक मात्र प्राकट्य एवं निवास बैठक अड़ैल होते हुए भी बैठक चरित्रों में कहीं भी इसका उल्लेख वर्तमान में प्राप्त नहीं होता है, छठीघर की बैठकजी जबकि वस्तुतः यह आपश्री की एक मात्र बैठक निर्विवाद है। कष्ट के साथ यह कहना अनिवार्य है कि सम्पर्ण बैठक वार्ता साहित्य इस विषय में मौन है। इसी तरह श्रीगुसांईजी श्रीविठ्ठलनाथजी के षष्ठलालजी की भी प्राकट्य एवं निजगृह होने से निवास बैठक अड़ैल होते हुए भी सम्पूर्ण बैठक वार्ता साहित्य मौन है। आपश्री की यह प्राकट्य बैठक स्थल हैं, यह तो निर्विवाद प्रमाणित है ही तथा विशेष रूप से आपश्री द्वारा रचित एकमात्र प्रसिद्ध ऐतिहासिक ग्रन्थ ‘श्रीवल्लभदिग्विजय’ का प्रारम्भ भी प्रयाग संगम के निकट स्थित अलर्कपुर (अड़ैल) में ही हुआ था जो कि प्रमाणित है। अतः अड़ैल में श्रीयदुनाथजी के विशेष चरित्र के प्राकट्य (बल्लभदिग्विजय ग्रन्थ प्राकट्य रूप) होने से वहां निश्चित रूप से षष्ठलालजी श्रीमहाराजजी की बैठक पूर्व में स्थित रही जो गुप्त हो गयी थी। उसे पुनः उपर्युक्त प्रमाणों के आधार पर प्रकट किया गया है। इसलिये अब अड़ैल में प्रकट रूप से पांच आचार्यो की बैठकें विराजमान हैं। श्रीमहाप्रभुजी, श्रीगोपीनाथजी, श्रीगुसाईंजी, श्रीगोकुलनाथजी, एवं श्रीयदनुनाथजी तथा अप्रकट बैठकों में श्रीगिरिधरजी, श्रीगोविन्दरायजी, श्रीबालकृष्णजी एवं श्रीरघुनाथजी की गुप्त विराजमान हैं। श्रीयदुनाथजी द्वारा रचित ‘वल्लभदिग्विजय’ ग्रन्थ का रचनाकाल वि0 सं0 1658 माना जाता है तथा तत्पूर्व वि0 सं0 1635 वै0 शु0 तृतीया को आपने काशी के पुरोहित गनीजी को श्रीगोपीनाथजी के हस्ताक्षर देख के प्रमाणित अपने हस्ताक्षर से किया। ऐसा लेख भी प्राप्त होता हैं। कहने का तात्पर्य यह कि वि0 सं0 1615 प्रकाटय आपका अड़ैल में हुआ, तदनन्तर विवाहोपरान्त वि0 सं0 1635 बैशाख में आपश्री पुनः काशी अड़ैल पधारे जो पुरोहित के वृत्तिपत्र से प्रमाणित है और तत्पश्चात् वि0 सं0 1652 में आपने श्रीवल्लभदिग्विजय ग्रन्थ क ेलेखन का प्रारम्भ भी अड़ैल में ही किया। अतः आपश्री की प्राकट्य बैठक एवं श्रीवल्लभदिग्विजय ग्रन्थ प्राकट्य की बैठक भी एकमात्र अड़ैल है जो इतिहास आज तक मौन था उसे उपर्युक्त प्रमाणों के आधार पर वि0 सं0 2037 मि0 वै0 कृ0 7 सोमवार को अड़ैल में षष्ठलालजी श्रीयदुनाथजी की बैठक प्रकट करके स्थित किया गया है। श्रीमहाप्रभुजी के ज्येष्ठपुत्र श्रीगोपीनाथजी एवं श्रीगुसाईंजी के प्रथम से लेकर षष्ठलालजी श्रीयदुनाथजी की प्राकट्य बैठक् अड़ैल है तथा श्रीमहाप्रभुजी की निजगृह की, श्रीगुसाईंजी की बालक्रीड़ास्थली एवं विद्याध्ययन स्थली, श्रीगोपीनाथजी की निवास स्थली, श्रीगोकुलनाथजी की भी प्राकट्य बैठक के साथ जो आपश्री श्रीभगवत् सप्ताह तथा मायावादी पण्डित को शास्त्रार्थ में पराजित किया। वह बैठक अड़ैल में है। इसी तरह श्रीयदुनाथजी की भी प्राकट्य बैठक एवं ‘श्रीवल्लभदिग्विजय’ ग्रन्थ प्राकट्य बैठक अड़ैल है।

श्रीगोकुलेश जीवन चरित्र में तो यहां तक का उल्लेख है कि श्रीगोकुलनाथजी ने यहां विराजकर व्यवस्थित रूप से भगवन्मन्दिर, रसोईघर, शैय्यामन्दिर, गोशाला, अश्वशाला आदि आवास गोकुल के अनुसार ही सब सिद्ध करवाया इसीलिये इस स्थल को पुराविद गोकुल नाम से भी सम्बोधित करते हैं। श्रीगोकुल भी श्रीयमुनातट पर स्थित है और अड़ैल भी श्रीयमुनाजी पर स्थित है। वहां भी वल्लभघाट है और यहां भी वल्लभघाट है।

श्रीअड़ैल बैठक का श्रीवल्लभार्चाचरण की आसुर व्यामोह लीला से भी पूर्ण सम्बन्ध है। श्रीभागवत एकादश स्कन्ध सुबोधिनी की रचना भी अड़ैल में ही है। श्रीमद्भागवत एकादशस्कन्ध के द्वितीयाध्याय में नवयोगेश्वरों का प्रसंग आता है।

कविर्हरिरन्तरिक्षः प्रबुद्ध पिप्पलायनः।

आविर्होत्रो ऽथ द्रुमिलश्चमसः करभाजन (11।2।21)

इस पर सुबोधिनी करते हुए आपश्री ने आठ योगेश्वरों पर लिखा था और नवम पर लिखने वाले रहे परन्तु तभी तृतीय भगवदाज्ञा हो गयी। ‘‘तासमय आपको श्रीठाकुरजी की तीसरी आज्ञा भई………….जो अब पधारो, तब आप विचार किये जो अब कौन प्रकार सो पधारनो। तब मन में विचार किये जो अब सन्यास ग्रहण करनों। पाछे विचार के आप संन्यास ग्रहण की आज्ञा आपकी धर्मपत्नी महालक्ष्मीजी के पास मांगी। स्त्री की आज्ञा बिना संन्यास ग्रहण न होई और वो तो आज्ञा दिये नाहीं’’ इत्यादि (घरू वार्ता-10)

जब श्रीमहालक्ष्मीजी ने सन्यासग्रहण की आज्ञा नहीं दिया तो आपश्री ने जिस प्रकार कृष्णावतार में भगवान् ने दावानल प्रसंग में अग्निप्रकट किया था तथैव आचार्यचरण ने भी यहां पर आव्रत्याग्नि प्रकट कर दिया। तब श्रीमहालक्ष्मीजी ने अग्नि का उपद्रव देखकर कहा ‘‘प्रव्रज’’ इस शब्द का दूसरा अर्थ संन्यास भी होता है। अतः इस प्रकार आपने श्रीमहालक्ष्मीजी से सन्यास ग्रहण की आज्ञा प्राप्त किया। तदनन्तर वि0सं0 1587 ज्ये0 कृ0 10 के दिन घरूवार्ता प्रमाण से आपने नारायणेन्द्रतीर्थ स्वामी से मन्त्रोच्चार कराके संन्यास ग्रहण करके काशी पधारे।

श्रीमहाप्रभुजी कोप्रथम आज्ञा गंगा सागर में हुयी द्वितीय आज्ञा मधुबन में हुयी और तृतीय आज्ञा ‘‘देहदेशपरित्यागस्तृतीयो लोकगोचरः’’ अड़ैल में हुयी। श्रीवल्लभाचार्यजी द्वारा रचित प्रसिद्ध षोडश ग्रन्थों में से लगभग चार पांच ग्रन्थों का प्रकाट्य स्थल अड़ैल है। षोडशग्रन्थस्थ षष्ठग्रन्थ नवरत्न की रचना श्रीमहाप्रभुजी ने वि0 सं0 1558 में अड़ैल में किया था।

आपश्री ने अड़ैल में ही ‘नवरत्न’ ग्रन्थ की रचना करके पत्र में लिखकर उनको भेज दिया जिससे उनकी व्यथा शान्त हुयी और भगवत्सेवा में उनका चित्त स्थिर हुआ।

(2) षोडशग्रन्थान्तर्गत सप्तम ग्रन्थ ‘अन्तःकरण प्रबोध’ का प्राकट्य क्रम में सप्तम स्थान पर है किन्तु यह श्रीमहाप्रभुजी की अन्तिम कृति है। जब स्वधाम में पुनः लौट आने की तृतीय आज्ञा ‘तृतीयोलोकगोचरः’ हो गयी तब संन्यास ग्रहण से पूर्व ज्येष्ठ कृष्ण सप्तमी के लगभग वा आगे पीछे इस ग्रन्थ का रचना काल है ऐसा ऐतिहा्रज्ञों का मन्तव्य है।

(3) षोडश ग्रन्थान्तर्गत नवम ग्रन्थ कृष्णाश्रय का प्राकट्य वि0 सं0 1557 में अड़ैल में ही हुआ। चौरासी वैष्णवन की वार्ता सं0 46 के अनुसार बूलामिश्र के लिये श्रीमहाप्रभु ने इस ग्रन्थ का प्रणयन किया।

(4) षोडशग्रन्थान्तर्गत एकादशग्रन्थ ‘‘भक्तिवर्धिनी’’ का प्राकट्य भी अड़ैल में हुआ है। इसका रचनाकाल वि0 सं0 1552 माना जाता है परन्तु चौरासी वैष्णवन वार्ता सं0 30 के अनुसार इस ग्रन्थ की रचना गुजरात के किसी गांव में हुयी है और पुरूषोत्तम जोशी संचोरा के प्रश्न कर्ममार्ग बड़ों के भक्तिमार्ग बड़ों के उत्तर निमित्त हुई है।

(5) ‘पुरुषोत्तम सहस्रनाम’ गन्थ श्रीगोपीनाथजी के लिये ही खासकर लिखा गया था। इसकी रचना भी अड़ैल में ही हुयी थी परन्तु इसका प्रणयन काल का अनुमान पुराविदों द्वारा ठीक से प्राप्त नहीं होता है। परन्तु इतना तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि वि0 सं0 1573 के पश्चात् ही इसका रचनाकाल है।

श्रीविट्ठलनाथजी श्रीगुसांईंजी द्वारा प्रोक्त ‘श्रीसर्वोत्तमस्तोत्र’ का रचना स्थल भी अड़ैल ही है। श्रीमहाप्रभुजी के लीला प्रवेश के पश्चात् लगभग वि0 सं0 1592 में दामोदरदासजी हरसानीजी की विनती से आपश्री ने श्रीमहाप्रभुजी के अलौकिक 108 नामों को प्रकट किया था।

वल्लभपरिवार का मुख्य उद्गम स्थल एवं श्रीमद्गोकुल के समानान्तर महत्वकारी स्थल अलर्कपुर (अड़ैल) है। श्रीमहाप्रभुजी की जन्मस्थली चम्पारण्य है और कर्मस्थली काशी है परन्तु निजगृह निवास एवं पुष्टिसेवा का उद्गमस्थल तो अड़ैल ही है। श्रीगुसांईंजी का जन्म यद्यपि चरणाट-चुनार में हुआ था परन्तु बाल्यकाल विद्याध्ययन आदि तो सब अड़ैल में ही हुआ। इसी तरह समस्त बालकों का बाल्यकाल तो अड़ैल में ही व्यतीत हुआ। श्रीगोपीनाथजी एवं श्रीगुसाईंजी के बालस्वरूप से श्रीमहाप्रभुजी की गोद में विराजे हुए अलौकिक दर्शन तो भगवत्कृपा से एकमात्र अड़ैल की बैठक में ही भाग्यशाली वैष्णवजनों को प्राप्त होते हैं। अतः पुष्टिसम्प्रदाय में गोकुल, चम्पारण्य, अड़ैल एवं चरणाट इन चार बैठकों को अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। इनमें भी निजगृह की बैठक तो अड़ैल ही है।

श्रीवल्लभाचार्यचरण की निजगृह की बैठक अड़ैल वर्तमान में सुदृढ़ प्राचीर से घिरे हुए अत्यन्त विशाल परिसर में स्थित है इस स्थल का वातावरण अत्यन्त सुरम्य है। मुख्यद्वार से प्रवेश करते ही बाई ओर जाने पर दाहिनी ओर बैठक का प्राचीन भवन स्थित है। जिसमें प्रवेश करने पर पहले एक दालान है। जिसमें दोनों ओर कमरे बने हुए हैं। जिसमें बैठकजी के कर्मचारी रहते हैं एवं कुछ कमरे वहां आने-जाने वाले वैष्णवों को भी ठहरने हेतु दिये जाते हैं। दालान के सामने खुले स्थान में कुआँ बना हुआ है तथा उसके बाद प्राचीर से लगे हुए कुछ कमरे वहां आने-जाने वाले वैष्णवों के ठहरने के लिये निर्मित कराये गये हैं। मुख्य भवन में दलान स्थित सिंहद्वार से प्रवेश करते ही सम्मुख श्रीमहाप्रभुजी के बैठक का दिव्यस्थल स्थित है। जिसमें श्रीमहाप्रभुजी की गादी, श्रीगोपीनाथजी की गादी एवं श्रीगुसाईंजी की गादी की सेवा अष्टयाम की प्रणाली के अनुसार चलती रहती है। इसी के अगल-बगल में श्रीगुसांईंजी के बालकों श्रीगोकुलनाथजी एवं श्रीयदुनाथजी की बैठकें भी बनी हुयी है।

 

अड़ैल बैठक का कमलचैक

श्री मद्वल्लभाचार्य जी की बैठक अडै़ल का सिंहपौर

अड़ैल बैठक का निजमन्दिर द्वार